SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयोऽध्यायः [ १३९ क्कुरवः । अपरं क्षेत्रमपरविदेहः । दक्षिणं क्षेत्र देवकुरव इति व्याख्यानात् । तत्र विदेहमध्यभागे मेरुयस्मादपरोत्तरस्यां दिशि गन्धमाली विजयात्पूर्वस्यां दिशि व्यवस्थितो नीलादपाक् गन्धमादनाख्यो वक्षारपर्वत उदग्दक्षिणायत: प्राक्प्रत्यग्विस्तीर्णो दक्षिणोत्तरकोटिभ्यां मेरुनीलाद्रिस्पर्शी द्वाभ्यामर्धयोजनविष्कम्भपर्वतसमायामाभ्यां वनषण्डाभ्यामलंकृतो मूलमध्याग्रेषु सुवर्णमयो नीलाद्रिपर्यन्ते चतुर्योजनशतोच्छितो योजनशतावगाहः प्रदेशवृद्धया वर्धमानो मेरुपर्यन्ते पञ्चयोजनशतोत्सेधः पञ्चविंशतियोजनशतावगाहः पञ्चयोजनशतविष्कम्भः । ततः प्रदेशहान्या हीयमानो नीलान्तेऽर्धतृतीययोजनशतविष्कम्भः त्रिंशत्सहस्राणि द्वे च नवोत्तरे शते योजनानां षट्चैकानविंशतिभागाः सातिरेका आयामः । मेरोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि नीलाद्दक्षिणस्यां कच्छविजयात्पश्चिमायां दिशि माल्यवान्वक्षारपर्वतो मूलमध्याग्रेषु वैडूर्यमयो विष्कम्भायामोच्छायावगाहसंस्थानैर्गन्धमादनेन समानः । मेरोरुदग्गन्ध बताते हैं-मेरु के पूर्व में पूर्व विदेह, उत्तर में उत्तर कुरु, पश्चिम में पश्चिम विदेह और दक्षिण में देवकुरु क्षेत्र है । विदेह के मध्य में मेरु है, उस मेरु से पश्चिम और उत्तर के बीच की विदिशा में [-वायव्य में ] गंधमाली नाम के देश से पूर्व दिशा में और नील कुलाचल के पश्चिम में गन्धमादन नाम का वक्षार पर्वत [ गजदंत ] है । यह गजदन्त दक्षिण उत्तर लंबा, पूर्व पश्चिम चौड़ा अपने दक्षिण और उत्तर के सिरे से क्रमशः मेरु और नील का स्पर्श करने वाला है । इस गजदन्त के दोनों तरफ उसके समान लंबे और आधा योजन चौड़े दो वन खण्ड हैं । यह पर्वत मूल मध्य और अग्रभाग में सुवर्ण मय है । नील कुलाचल के निकट इसकी ऊंचाई चार सौ योजन की है । इसका वहां पर अवगाह [ नींव ] एक सौ योजन है । प्रदेश वृद्धि से आगे बढ़ता हुआ मेरु के निकट पांच सौ योजन ऊंचा हो जाता है, और एक सौ पच्चीस योजन अवगाह वाला होता है। पांच सौ योजन चौड़ा है, फिर वहां से घटता हुआ नील पर्वत के निकट ढाई सौ योजन चौड़ा रह जाता है, इसप्रकार मेरु से लेकर नील तक लंबे फैले हुए इस गजदंत की लंबाई तीस हजार नौ सौ दो योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग कुछ अधिक है। इसप्रकार गंधमादन नाम के गजदंत का वर्णन किया। मेरु के पूर्व उत्तर दिशा के अंतराल में [ ईशान में ] नील से दक्षिण और कच्छा देश से पश्चिम में माल्यवान नाम का वक्षार [ गजदन्त ] नाम का पर्वत है, यह मूल मध्य तथा अग्र में वैडूर्यमणि मय है, इस गजदन्त का विस्तार, ऊंचाई अवगाह और संस्थान गंधमादन के समान है । मेरु के उत्तर में गन्धमादन से पूर्व में नील के
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy