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________________ १२० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती विषशस्त्रवेदनादिबाह्यनिमित्तविशेषेणापर्यंते ह्रस्वीक्रियत इत्यपवर्त्य अपवर्तनीयमित्यर्थः । अपवर्त्यमायुर्येषां ते अपवायुषः । नापवायुषोऽनपवायुषः । त इमे औपपादिकादयोऽपवर्तनीयायुषो न भवन्तीति नियमोऽवसेयः । तेभ्योऽन्ये तु संसारिणः सामर्थ्यादपवायुषोऽपि भवन्तीति गम्यते । तत एव प्राणिनां प्रतीकाराद्यनुष्ठानान्यथानुपपत्तेरकालेऽपि मरणमस्तीति निश्चीयत इत्यलं विस्तरेण । की आय यथासमय ही क्रमशः निर्जीर्ण होती है। केवल कर्मभूमिज मनुष्य तिर्यंचों की आयु अपवर्त्य-अपवर्तनीय-कम होने योग्य है, बाह्य में विष भक्षण, शस्त्रप्रहार, अग्निदाह, रक्तक्षय, अत्यंत संक्लेश परिणाम आदि आदि अनेक निमित्तों के मिलने से इनके आयु का ह्रस्वीकरण हो जाता है । यह नियम है कि भुज्यमान आय बढ़ती नहीं, अर्थात् जिसका उदय प्रारंभ हो गया जिसे वर्तमान पर्याय में भोग रहे हैं वह जितने समय प्रमाण बंधी है उन समयों में वृद्धि कदापि संभव नहीं है, केवल ह्रास ही संभव है। यदि किसी की शंका हो कि जैसे वृद्धि संभव नहीं है वैसे ह्रास भी नहीं होना चाहिये । सो यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि कर्मभूमिज जीवों के अपवर्त्य वाली आय का कथन इस तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ में महान आचार्य उमास्वामी ने किया है। तथा यदि उक्त जीवों की आयु में ह्रास-हानि संभव नहीं होती तो चिकित्सा व्यर्थ ठहरती है। यदि कहा जाय कि चिकित्सा तो केवल वेदना कम करने के लिये है सो यह बात भी कर्म के उदय में परिवर्तन ही सिद्ध करती है, अर्थात् रोग का प्रतीकार चिकित्सा द्वारा होता है यह माना जाय तो रोग असाता वेदनीय आदि कर्मोदय के कारण होता है और वह असातादि कर्म औषधि आदि द्वारा अल्प होता है अथवा शीघ्र उदीर्ण होकर समाप्त होता है तो जैसे असाता कर्म में अपवर्तन-ह्रस्वपना स्वीकार किया वैसे आयु का अपवर्तन क्यों नहीं स्वीकार किया जाय ? करना ही होगा। इसप्रकार रोग-वेदना के प्रतीकार की अन्यथानुपपत्ति से उक्त प्राणियों के अकाल मरण की सिद्धि होती है । जो चन्द्रमा के किरण समूह के समान तथा विस्तीर्ण तुलना रहित मोतियों के विशाल हारों के समान एवं तारका समूह के समान शुक्ल निर्मल उदार ऐसे परमौदारिक शरीर के धारक हैं, शुक्लध्यान रूपी अग्नि की उज्ज्वल ज्वाला द्वारा जला दिया है घाती कर्मों के ईन्धन समूह को जिन्होंने ऐसे तथा सकल विमल केवलज्ञान द्वारा संपूर्ण लोकालोक के स्वभाव को जाननेवाले श्रीमान परमेश्वर जिनपति के मत को
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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