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Homoe-mecom नामृतम्:-wesom-mooser-wesome
GE वर्षायोग के तत्काल बाद २३-१०-१९८७ को आपने ऐलक दीक्षा । । स्थीकार की। गुरुदेव ने आपको रूपेन्द्रसागर इस नाम से अलंकृत है किया। आपने गुरु के साथ सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी के दर्शन किये तया,
सोनज (मालेगाँय) से आपने अलग विचरण करना प्रारंभ किया ।। है विहार करते-करते आप अपने दादागुरु परमपूज्य आचार्य
श्री सन्मतिसागर जी महाराज के चरणों में पहुँचे। अतिक्षय क्षेत्र डेचा! (जि.डूंगरपूर) में आपने दादागुरु के करणकमलों से ११-५-१९८९ को , मुनिदीक्षा ग्रहण की। मुनिदीक्षा का प्रथम चार्तुमास गुरुदेव के साथ सम्पन्न करके आपने अलग विहार कर दिया। आत्मासाधना आपका ध्येय या, तो सारा समाज प्रबोधित हो यह आपकी पवित्र इच्छा थी। इन दोनों ही लक्ष्यों को सिद्ध करते हए आपने अनेक गाँवों और: शहरों को सजी गरगरत यो एविया
आपकी प्रवचन शैली ये-जोड़ है। आपके प्रवचन में केवल ओज ही नहीं, अपितु साथ में आगम की धाराप्रवाहिकता भी है।। विषय की सर्वागिनता, दृष्टान्त की सहजता और शैली में नयविवक्षा ६ का होना आपके प्रवचनों का वैशिष्ट्य है। प्रवचनशैली की तरह ही, है आपकी अध्यापनशैली अनुपम है। प्रत्येक चार्तुमास में आप नवयुवकों !
को धार्मिक शिक्षण कराते हैं। फिजुलखर्चीपना आपको रुचिकर नहीं। है तथा समय की पाबन्दी में आप सब के लिए एक आदर्श उदाहरण !
। आप अनेक विशेषताओं से सम्पन्न हैं और अनेक सद्गुणों के समाधार भी। आपकी समस्त विशेषताओं को विलोक दूरदृष्टिवान । गुरुदेव ने १९९५ में आपको आचार्यपद प्रदान करने की घोषणा। की। पदों के प्रति निरासक्त रहते हुए आपने गुरुदेव से निवेदन किया है है कि हे गुरुदेव! आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आचार्यपद नहीं, अपितु।
अपने दो पद (चरणयुगल) प्रदान कीजिये ताकि चारित्रपथ का । अनुगमन करते हुए मैं कभी थकावट का अनुभव न करूं। बालयोगी, शब्दशिल्पी जैसे कितने ही पदों को आपने ग्रहण नहीं किया।
आपकी रुचि प्राचीन शास्त्रों की सुरक्षा में है। आप जहाँ भी। जाते हैं, यहाँ के हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के ग्रन्धागार का अवलोकन