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________________ a Poweomooo-most-wo स्वत: जागृतम-wesomraveena ३३ n । ज्ञानावरण कर्म कहते हैं । इसके मुख्यतः पाँच भेद हैं । है जो कर्म आत्मा के दर्शन नामक गुण को आच्छादित करता। है है, उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं । इस कर्म के मुख्यतः नौ भेद ... जिस कर्म के द्वारा आत्मा के श्रद्धा या चारित्र गुण का घात होता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के भेद से यह कर्म दो प्रकार का है । जिस कर्म के उदय से दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यादि कार्यों में विघ्न उत्पन्न होता है, उस कर्म को अन्तराय कर्म कहते हैं । इसके मुख्यतः पाँच भेद हैं । इन घातिया कर्मों का विनाश करके आत्मा परमात्मा बन जाता है । घातिया कर्म का विनाश करने से आत्मा को केवलज्ञान की ? । प्राप्ति होती है, इस बात को सुस्पष्ट करते हुए आचार्य श्री उमास्वामी। जी महाराज ने लिखा हैमोहक्षयाशानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । (तत्त्वार्थसूत्र :- १०/१) अर्थात् :- मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर और ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा । अन्तराय कर्म का क्षय हो जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है । केवलज्ञानी को ही जैनागम में परमात्मा कहा गया है ।। निष्किष्टकालकं स्वर्ण, तत्स्यादग्निविशेषतः । तथा रागक्षयादेषः, क्रमाद्भवति निर्मलः ।।२७।। अर्थ :है अग्नि के योग से जैसे सुवर्ण किट्टी और कालिमा से रहित हो जाता है, उसीप्रकार राग का क्षय करके यह आत्मा क्रम से। निर्मल हो जाता है । विशेषार्थ : इस कारिका में आत्मा के शुद्धि की प्रक्रिया को उदाहरण के Mp4
SR No.090486
Book TitleSwatantravachanamrutam
Original Sutra AuthorKanaksen Acharya
AuthorSuvidhisagar Maharaj
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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