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________________ Promosome णतातरमूलम-one-post २८ । अर्थात् :- स्पष्टज्ञान को प्रमाण कहते हैं । न्यायविनिश्चयकार के अनुसार स्पष्ट, सविकल्प और व्यभिचारादि । दोषों से रहित होकर स्व और परविषयक सामान्यरूप से द्रव्य को । और विशेषरूप से पर्याय को जानना प्रत्यक्ष है । परोक्षप्रमाण को परिभाषित करते हुए आचार्य श्री माणिक्यनन्दि जी लिखते हैं - परोक्षमितरत् । (परीक्षामुख :- ३/१) । अर्थात् :- प्रत्यक्ष से भिन्न ज्ञान को अर्थात् अविशदज्ञान को परोक्ष प्रमाण कहते। दोनों प्रमाणों के स्वरूप को समझाते हुए आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने लिखा है - जे परदो विण्णाणं तं तु परोक्छ ति भणिदम सु। जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्लं ।। (प्रवचनसार :- ५८) अर्थात् :- पर के व्दारा होने वाले पदार्थविषयक ज्ञान को परोक्ष कहा गया है ।। । यदि मात्र आत्मा के व्दारा ही जाना जावे तो वह प्रत्यक्ष है । इन दो प्रकार के प्रमाणे के व्दारा आत्मा स्व को और पर । वस्तुओं को जानता है ।। स्यादस्तिनास्ति युगस्यादवक्तव्यं च तत्त्रयम् । सप्तभङ्गीनयैर्वस्तु, द्रव्यार्थिकपुरस्सरैः ।।२४।। । अर्थ : स्यादस्ति, स्याम्नास्ति, स्यादुभय, स्यादवक्तव्य, स्यादस्ति-अवक्तव्य, र स्यान्नास्ति-अवक्तव्य और स्यादस्तिनास्ति-अवक्तव्य इस सप्तभंगी नय के व्दारा द्रव्यार्थिकता की प्रधानता से वस्तु का ज्ञान करना चाहिये । विशेपार्थ :
SR No.090486
Book TitleSwatantravachanamrutam
Original Sutra AuthorKanaksen Acharya
AuthorSuvidhisagar Maharaj
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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