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________________ वस्तु को जैनों ने अस्ति-नास्ति उभयरूप तो माना, किंतु वहाँ मात्र नास्तिवादियों के समान अभावरूप भी नहीं माना है। क्योंकि वैसा मानने पर ज्ञान एवं वचन-दोनों ही अभावरूप हो जाने से अभावैकान्त की सिद्धि भी असंभव हो जायेगी। अत: स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा आत्मवस्तु विधिरूप या भावरूप है तथा परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा वही निषेधरूप या अभावरूप है -ऐसी अनेकान्तदृष्टि के साथ जैनों ने स्याद्वादी शैली में वस्तु का अस्तित्व एवं नास्तित्व सिद्ध किया है। 'मूर्ति' या 'मूर्तिक' शब्द की दो तरह से व्याख्यायें की जाती हैं, एक तो 'रूप-रस-गंधादिमय होने से मूर्तिक' और दूसरी 'आकारसहित होने से मूर्तिक' | प्रथम व्याख्या आत्मा पर स्वरूपत: लागू नहीं होती है, अत: यहाँ दूसरी व्याख्या के अनुसार ज्ञानपरिमाण या ज्ञानाकार तत्त्व होने से आत्मा को मूर्तिक' कहा गया है। तथा रूपादि के कारण आने वाला मूर्तिकपना आत्मा में नहीं होने से उसे 'अमूर्तिक' कहा है। यहाँ अनेकान्त की स्थापना के साथ-साथ आत्मा के अध्यात्मगत मूलस्वरूप को अबाधित रखकर भट्ट अकलंकदेव ने अद्भुत सन्तुलन प्रस्तुत किया है। जीव को जो अमूर्तिक कहा गया है, वह जीव के स्वभाव का कथन तो है ही; साथ ही इस कथन से भाट्टो एवं चार्वाकों के आत्मा-विषयक स्पर्श-रसगंध-वर्णादिरूप मूर्तिकत्व का भी निराकरण होता है। किंतु जो मूर्तिकत्व का यहाँ प्रतिपादन है, वह नितान्त मौलिक एवं विशिष्ट है। 1. आप्त मीमांसा, 191 2. वही, I 121 3. वही, 1151 ___ द्रव्यसंग्रह, गाथा 7 की टीका (ब्रह्मदेव सूरिकृत)। 29
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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