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ग्राह्याग्राह्य अनेकान्तरूप बताया है। तृतीय पद्य में भिन्नैकान्त एवं अभिन्नैकान्त की समीक्षा करते हुए आत्मद्रव्य को ज्ञानादि गुणों के गुणभेद से भिन्न एवं गुणसमुदायत्व से अभिन्न ऐसा भिन्नाभिन्न अनेकान्तरूप समझाया गया है। चतुर्थ पन में चेतनैकान्त एवं अचेतनैकान्त की समीक्षा करते हुए आत्मा को ज्ञानादि चेतनगुणों की अपेक्षा चेतन एवं अन्य अस्तित्व-प्रमेयत्वादि सामन्य गुणों की अपेक्षा अचेतन - ऐसे चेतनाचेतन अनेकान्तरूप प्ररूपित किया है । पाँचवे पत्र में व्यापकैकान्त एवं अव्यापकैकान्त की समीक्षा करते हुए ज्ञान के सवंगत प्रसार की अपेक्षा सर्वव्यापी माना है और प्रदेशों की अपेक्षा प्राप्त शरीर के आकारवाला' (स्वदेहप्रमाण) माना है, इस प्रकार व्यापकाव्यापक-अनेकान्त की स्थापना की है। छठवें पथ में एकत्वैकान्त एवं अनेकत्वैकान्त की समीक्षा करते हुए आत्मा को अनेकविधज्ञान स्वभाव की अपेक्षा अनेकरूप एवं चेतनत्व की अपेक्षा एकरूप - इस तरह एकानेकानेकान्तरूप बताया है। सातवें पद्य में वक्तव्यैकान्त एवं अवक्तव्यैकान्त का निषेध करते हुए आत्मा को स्वरूपादि की अपेक्षा वक्तव्य (कहा जाने योग्य) एवं पररूपादि की अपेक्षा अवक्तव्य - ऐसा वक्तव्यावक्तव्य अनेकान्तरूप प्ररूपित किया है। आठवें पध में अस्ति-एकान्त एवं नास्ति-एकान्त की समीक्षा करते हुए स्वधर्म की अपेक्षा अस्तिरूप तथा परधर्म की अपेक्षा नास्तिरूप-ऐसे अस्ति-नास्ति अनेकान्तरूप कहा है। तथा इसी पद्य में ज्ञानाकार होने से मूर्तिरूप तथा रूपादिगुणों से रहित होने से अमूर्तिरूप, ऐसे मूर्ति-अमूर्ति अनेकान्त की स्थापना की है। इस प्रकार कुल नौ धर्मयुगलों पर एकान्तमतों की समीक्षा एवं अनेकान्त की स्थापना इसमें की गयी है। तथा नौवें पद्य में यह सूचित किया है कि इन पूर्वोक्त नौ धर्मयुगल मात्र ही आत्मा नहीं हैं, अन्य भी अनेक धर्म आत्मा में हैं - ऐसा स्पष्टरूम से स्वीकार किया है। ___ इन धर्मों के कथन के साथ ही आत्मा के बन्ध-मोक्ष (पद्य 9), कर्म एवं कर्मफल के कर्तृत्व-भोक्तृत्व (पद्य 10) आदि दार्शनिक बिन्दुओं से आत्मा का स्वरूप-विवेचन करते हुए जैनदर्शन में मोक्षसाधन के रूप में स्वीकृत सम्यादर्शन-सम्याज्ञान एवं सम्पचारित्र (की एकता) का उल्लेख (पद्य क्र 11 में) करते हुए इन तीनों का स्वरूप (पद्य क्र. 11 से 15 तक) अच्छी तरह स्पष्ट किया है। इस प्रकार प्रारम्भ के पन्द्रह पद्यों में आत्मस्वरूप विषयक सैद्धान्तिक विवेचन आचार्य अकलंकदेव ने प्रस्तुत किया है।
2. आत्मस्वरूप की भावना विषयक आध्यात्मिक वर्णन - इस प्रकरण के प्रारम्भ में सर्वप्रथम (पद्य 16 में) ग्रन्थकर्ता ने बताया है कि
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