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________________ टीकाकार की प्रशस्ति भी दो अनुष्टुप छन्दों में निबद्ध है। इसमें भी प्रथम पद्य में उन्होंने कवि हृदय होंकर आलंकारिक शैली में इस ग्रंथ में भट्ट अकलंकदेवरूपी चन्द्रमा की सूक्ति- श्रेष्ठवचनोंरूपी निर्मल किरणों को भव्यजीवों के हृदयरूपी कुमुदिनियों के विकसित होने / खिलने / आनन्दित होने का कारण बताया है "भट्टाकलंकचन्द्रस्य सूक्ति-निर्मूलरश्मयः । विकासयन्तु भव्यानां दृत्कैरवसंकुलम् ।।" तथा प्रशस्ति के द्वितीय पद्य में ग्रन्थकर्त्ता का नाम, ग्रन्थ का नाम बताते हुए टीकाकार ने अपना नाम 'केशवव' (टीका केशववर्यैः कृता) तथा टीका का 'उद्देश्य 'आत्मस्वरूप की उपलब्धि' (स्वरूपोपलब्धिमावाप्तुम् ) बताया गया है। जहाँ मंगलाचरण एवं प्राक्कथन में ग्रन्थकर्त्ता का नाम मात्र 'अकलंक' बताया था, वहीं प्रशस्ति में इसमें 'भट्ट' एवं 'देव' पदों का समायोजनकर (भट्टाकलंकदेवैः ) ग्रन्थकर्त्ता के विषय में समस्त भ्रमों का निवारण कर दिया है। क्योंकि अकलंक नाम से कई आचार्य जैन परम्परा में हुये हैं एवं उन्होंने ग्रन्थ रचना भी की है। किन्तु 'भट्ट' पदवी के धारक तथा देव' नामान्त वाले अकलंक बौद्ध विजेता, तार्किकशिरोमणि महान् समर्थ आचार्य थे, जो निष्कलंक के भाई थे तथा कथाग्रन्थों में जिनकी अनेकविध कथायें प्रचलित हैं। इनका परिचय पहले दिया जा चुका है। जहाँ 'कर्णाटकवृत्ति' में 'पञ्चविंशतिः' पद को मूलग्रन्थ के नामकरण में शामिल किया गया था, वहीं संस्कृत टीकाकार ने इसे ग्रंथ के नाम से भिन्न कर दिया है "स्वरूपसम्बोधन पञ्चविंशतिः स्वरूपसम्बोधन इति पंचविंशति ग्रंथप्रमाण ग्रंथ: । " किन्तु यह कथन यहाँ कतई प्रासंगिक नहीं है कि अन्य आधुनिक सम्पादकों ने जो स्वरूपसम्बोधन' नाम लिया है, वह इसी टीका से लिया है; क्योंकि यह टीका आज तक अप्रकाशित ही रही है। कन्नड़ ताड़पत्रों से यह इस संस्करण में प्रथमबार प्रकाशित हो रही है। तथा जब मूल ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के अन्तिम पद्य में इसका नाम 'स्वरूपसम्बोधनपञ्चविंशतिः' ही दिया है, तब आधुनिक सम्पादकों को ग्रंथ के नाम में फेरबदल या कतरब्योंत करने का कोई अधिकार ही नहीं रह जाता है। जहाँ तक संस्कृत टीकाकार के प्रयोग का प्रश्न = XXVI
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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