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________________ का मनीषी मानना होगा। इनका नाम महासेन था, तथा 'पण्डितदेव' इनकी उपाधि थी। इनकी गुरूपरम्परा के अवलोकन से प्रतीत होता है कि ये भी जैनश्रमण थे। इनके नाम के साथ प्रयुक्त पण्डित' शब्द आज के सन्दर्भो में नहीं था, अत: इन्हें गृहस्थ नहीं माना जा सकता है। इनका व्यक्तित्व भी महान् था। आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेव ने इन्हें 'षण्णवति-तार्किक-विजयोपार्जित-विशालकीर्ति विशेषण से विभूषित किया है, इससे ज्ञान होता है कि इन्होंने 96 तार्किकादियों को पराजित कर अपार यश अर्जित किया था। उक्त कथन से इनका न्यायशास्त्रीय प्रकाण्ड पाण्डित्य स्पष्ट है। इस न्यायविषयक पाण्डित्य की झलक प्रस्तुत ‘कर्णाटकवृत्ति' में भी कई पद्यों की उत्थानिकाओं में स्पष्टरीत्या मिलती है, तथापि अध्यात्मभावनाप्रधान ग्रन्थ होने से उन्होंने न्यायविषयक चर्चा को प्रधानता नहीं दी है; यह एक सफल एवं संतुलित टीकाकार का लक्षण है। इनका सफल टीकाकार के रूप में तो परिचय यहाँ मिल जाता है, किन्तु यदि 'प्रमाणनिर्णय' ग्रन्थ मिल जाये, तो इनकी न्यायविषयक विद्वत्ता एवं स्वतन्त्र ग्रन्धकार का व्यक्तित्व भी स्पष्ट हो सकता है। इससे अधिक कुछ भी परिचय महासेन पण्डितदेव के बारे में उपलब्ध नहीं होता है। हाँ ! इतना अवश्य है कि इन्होंने ग्रंथारम्भ में अपना नाम महासेनदेव' बताया है, जबकि ग्रंथ की प्रशस्ति में इन्होंने स्वयं एवं पद्मप्रभमलधारिदेव ने इन्हें 'महासेन पण्डितदेव' कहा है, जो कि इनके गुरू 'नयसेन पपिरतदेव की परिपाटी का अनुसरण भी है एवं बहुमानसूचक भी। ग्रन्थ की प्रशस्ति में इन्होंने टीका के निमित्त के रूप में सूरस्तगण के अग्रणी सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमत् (बड़े) वासुपूज्य सैद्धान्तदेव के प्रिय शिष्य पद्मरस का उल्लेख किया है। किन्तु प्राप्त जैन इतिहास में मुझे वासुपूज्य सैद्धान्तदेव एवं उनके शिष्य पद्मरस का कहीं नामोल्लेख भी नहीं मिलने से इनके आधार पर महासेनपंडितदेव के व्यक्तित्व एवं परिचय पर कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है। एक बात और उल्लेखनीय है। पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्ताचार्य लिखते हैं कि उपलब्ध महासेनों में कोई नयसेन का शिष्य नहीं है, जबकि टीकाकार महासेनपंडितदेव ने स्वयं को नयसेन पण्डितदेव का शिष्य कहा है, तथा कालगत दृष्टि से देखने पर भी ये नयसेन पंडितदेव के साक्षात् शिष्य प्रतीत होते हैं। और 1जैन साहित्य का इतिहास, भाग 2, पृष्ठ 190 | xxiii
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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