SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैज्ञानिक सम्पादन के न होने से तथा इसके कर्ता आदि के विषय में भी अनेकों भ्रान्तियाँ प्रचलित होने से अपने आप में अप्रकाशितवत् बनी हुई है। यद्यपि यह अन्य अकलंक-साहित्य की भाँति अति अगाध एवं विस्तृत तो नहीं है, तथापि समुद्र की बूंद भी समुद्र का अंश होने उसका परिचय एवं वैशिष्ट्य समुद्र से भिन्न नहीं हो सकता; इसीप्रकार आकार में छोटी होते हुए भी स्वरूपसम्बोधन-पञ्चविंशति' नामक यह कृति अकलंकदेव की लेखनी से प्रसूत होने से पर्याप्त गौरव रखती है। इसका विशद परिचय निम्नानुसार प्रस्तुत है ग्रन्थ-परिचय:- भारतीय-परम्परा में ग्रन्थ के परिमाण के आधार पर ग्रन्थों का नामकरण करने की एक शैली रही है; जैसे-अमृताशीति (अशीति अस्सी) सम्बोधनसप्तति: (सप्तति=सत्तर), महावीराष्टक (अष्टक आठ पद्यों का समूह), गाथासप्तशती (सप्तशती-सात सौ पद्यों का समूह) एवं पद्मनंदिपंचविंशतिः (पंचविंशति-पच्चीस) आदि। इसी परम्परा में रचित ग्रन्थ है 'स्वरूपसम्बोधन पञ्चविंशति:'। ग्रन्थ के परिमाप को ग्रन्थ के नामकरण में सूचित कर देने का एक विशेष लाभ यह होता था कि उस ग्रंन्ध में बाद में कोई न तो कुछ जोड़ सकता था और न ही घटा सकता था। साथ ही यदि कालप्रभाव आदि कारणों से प्रति अपूर्ण प्राप्त होती है, तो भी उसके परिमाणसूचक नाम से उसके आकार आदि का ज्ञान करने में सुविधा रहती है। . यद्यपि परिमाणपरक नाम वाले ग्रन्थों में ग्रन्थ का परिमाण उसके नामकरण में दिये गये संख्यावाची शब्द से स्पष्ट हो जाता है; तथापि यह आवश्यक नहीं है कि ग्रन्थकार ठीक उतने ही पद्यों की रचना करे, जो संख्या उसने नामकरण में निर्दिष्ट की है। प्राय: मंगलाचरण या उपसंहार के पद्यों को ग्रन्धकार मूलग्रन्थ से बाहर मान लेता था, अत: एक या दो पद्य अधिक भी मिल जाते हैं। अब कोई हठग्राही प्रतिलिपिकार नामकरण में दी गयी संख्या की सत्यता सिद्ध करने के लिए ऐसे पद्यों को कम कर देते थे, जिससे ग्रन्थ का प्रास्तविक एवं समापन गायब हो जाता था। तो कोई-कोई लिपिकार ग्रंथ के बीच में से एकाध पद्य कम कर संख्या-सन्तुलन बना देते थे। ऐसी स्थिति में ग्रन्थ का प्रारम्भ एवं अन्त तो वही रहता, किन्तु बीच में से विषयप्ररूपक कोई पद्य निकल जाने से ग्रन्थ की स्वरूप-हानि होती थी। प्रस्तुत 'स्वरूपसम्बोधन-पञ्चविंशति' ग्रन्थ के साथ भी
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy