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________________ कथाग्रन्थों में भी इनके जीवन-परिचय-विषयक कई कथायें एवं किंवदन्तियाँ प्रचलित हो गयीं। उन कथाग्रन्थों के विवरणों का सार निम्नानुसार प्रस्तुत है इनके जीवन-वृत्त के बारे में कथाग्रन्थों में कतिपय बिन्दुओं पर मतवैविध्य है; इनमें प्रमुख बिन्दु है इनका कुल-परिचय । प्रभाचन्द्रकृत कथाकोष' के अनुसार ये मान्यखेट के राजा शुभतुंग के मन्त्री पुरुषोत्तम के पुत्र थे। तथा 'राजाबलिकथे' में इन्हें काञ्चीपुरी निवासी जिनदास नामक ब्राहमण का पुत्र बतलाया गया है। 'तत्त्वार्थराजवार्तिक के प्रथम अध्याय की प्रशस्ति के अनुसार ये लघुहब्ब नृपति के ज्येष्ठ पुत्र थे। नेमिदत्त कृत 'आराधनाकथाकोष' में भी इन्हें मान्यखेट के राजा शुभतुंग के मन्त्री पुरुषोत्तम का पुत्र बताया गया है तथा इनकी माता का नाम 'पद्मावती' कहा गया है। इनके छोटे भाई का नाम 'निष्कलंक' भी यहाँ स्पष्ट रूप से सूचित है। अब इनमें से कौन-सा परिचय सही या प्रामाणिक है?– कहना कठिन है। परन्तु चाहे कुल-परिचय की दृष्टि से ये मन्त्रीपुत्र या ब्राह्मणपुत्र या राजपुत्र-कुछ भी कहे गये हों; किन्तु शेष जीवनवृत्त प्राय: सभी कथाग्रन्थों में समान है। जो कि संक्षेपत: निम्नानुसार है अकलंक और निष्कलंक नामक दोनों भाईयों ने बाल्यावस्था में ही आष्टालिक ब्रहमचर्यव्रत अंगीकार किया था, जिसका कि उन्होंने यावज्जीवन निर्वाह किया। वह युग धर्मकीर्ति-सदृश धुरन्धर बौद्ध-तार्किकों के कारण बौद्धदर्शन के चरमोत्कर्ण का युग था। सर्वत्र बौद्धधर्म का प्रचार था। राजा भी उसके अनुयायी हो बौद्ध धर्म को राज्याश्रम प्रदान कर रहे थे; जिसके फलस्वरूप तर्कशक्ति व राजशक्ति के समवेत प्रहारों से भारत के प्राचीन धर्म-वैदिक एवं जैनधर्म, बुरी तरह मर्माहत थे। अत; बौद्धों से टक्कर लेने के लिए उस शास्त्रार्थ-युग में बौद्धदर्शन का सूक्ष्म अध्ययन अनिवार्य हो गया था, अन्यथा उनका खंडन कैसे संभव होता? अतएव इन दोनों भाईयों ने 'महाबोधि-विद्यालय में बौद्धशास्त्रों के सूक्ष्मअध्ययनार्थ बौद्ध बनकर प्रवेश लिया और बौद्धशास्त्रों का सूक्ष्मता से अध्ययन करने लगे। किन्तु भाग्यचक्र कुछ और ही ताना-बाना बुन रहा था। एक दिन बौद्ध गुरु सप्तभंगी-सिद्धान्त की समीक्षा कर रहे थे, किन्तु सप्तभंगी-विषयक पाठ अशुद्ध होने के कारण अर्थसंगति नहीं बैठ रही थी। गुरु के कहीं कार्यग्श जाने पर प्रखरबुद्धि अकलंक के यौवनोल्साह ने जोर मारा और दूरगामी परिणाम का
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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