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________________ द्वितीय संस्करण में पृष्ठ 586 से 593 तक कुल आठ पृष्ठों में अर्थसहित प्रस्तुत ग्रन्थ का स्वरूप-सम्बोधन-स्तोत्र' इस शीर्षक से प्रकाशन किया गया है। इसमें भी मात्र पच्चीस छन्द हैं, तथा पूर्वोक्त बीसवाँ पद्य (तथाप्यति तृष्णावान्...) इसमें भी अनुपलब्ध है। इसमें पद्य क्रमांक 3 (ज्ञानाद् भिन्नो...) एवं पद्य क्र. 4 (प्रमेयत्वादि...) में क्रमव्यत्यय भी है। इसके सम्पादक डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल ते पथासंभव मूलपाठ व अनुवाद को शुद्ध रखने की चेष्टा की है, तथापि कई त्रुटियाँ रह गयी हैं; किन्तु मूलपाठ की आधारप्रति का कोई परिचय न दिया होने से इसमें अधिक दोष किसका है? आधारप्रति का या इस संग्रहप्रति के सम्पादक का कहना कठिन है। तथापि कतिपय स्थूलदोष भी हैं, जिनसे सम्पादक थोड़ा ध्यान देकर बच सकते थे। इनका परिचय तुलनात्मक पाठ-भेदों के चार्ट में स्पष्ट किया गया है। एक अन्य विचारणीय बिन्दु है प्रस्तुत संग्रहप्रति में नामकरण का। इसके नामकरण में सम्पादक ने 'पञ्चविंशति' पद जो कि ग्रंथ के अन्तिम पद्य में ग्रंथ नाम में स्पष्टतया सम्मिलित है, छोड़ दिया गया है तथा स्तोत्र' पद जोड़ दिया गया है। जबकि इसमें स्तोत्रं' संज्ञा, विषय तथा शैली दोनों की दृष्टि से तर्कसंगत प्रतीत नहीं होती। तथा इसका कोई आधार भी विद्वान् सम्पादक ने नहीं दिया स्वरूपसम्बोधन प्रवचन - क्षुल्लक श्री मनोहरलाल जी वर्णी सहजानन्द' जी के द्वारा इस ग्रन्थ पर प्रवचन किये गये, जिनका संकलितरूप सन् 1976 में सहजानन्द शास्त्रमाला, मेरठ (उ०प्र०) में पुस्तकाकार में प्रकाशित कराया गया । पृष्ठ 5 से 124 तक कुल 119 पष्ठों में ये प्रवचन प्रकाशित हुए हैं, शेष पृष्ठों में भजन आदि हैं। सम्पादन जैसी किसी विधा का तो इस प्रति में स्पर्श तक नहीं किया गया है। अत: आधार-प्रति के परिचय, पाठ-भेद आदि की कल्पना भी कष्टकर ही है। किन्तु इसका आधार आरा (बिहार) वाली प्रति या उसी के आधार पर प्रकाशित कोई अन्य प्रति प्रतीत होती है, क्योंकि इसमें भी कुल पच्चीस ही पद्य हैं, बीसवाँ पद्य इसमें भी छूटा हुआ है। इसमें भी पद्य क्र0 3 एवं 4 में क्रम- व्यत्यय है । तथा पाठ भी तदनुरूप ही हैं। सम्पादकीय तथा प्रस्तावना जैसी किसी भी प्रक्रिया की इसमें औपचारिकता भी नहीं निभायी गयी है। अत: कोई अन्य सूचना मिलना भी असंभव है। XI
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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