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________________ परिशिष्ट क्र. 4 टिप्पणी (यह टीका मुझे पूरा ग्रन्थ मुद्रित हो चुकने के बाद मुनिश्री कनकोज्ज्वलनंदि जी के द्वारा प्राप्त हुई है अत: इसे परिशिष्टरूप में दिया जा रहा है। इसका संक्षिप्त परिचय एवं समीक्षा निम्नानुसार है - ) परिचय - यह टीकाग्रन्थ सन् 1967 में शान्तिसागर जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, शान्तिवीर नगर, श्री महावीरजी (राज0)' से प्रथमावृत्ति में प्रकाशित हुआ था। यह एक संकलनग्रन्थ था, जिसमें समाधितन्त्र, इष्टोपदेश एवं स्वरूपसम्बोधनपञ्चविंशति ये तीन ग्रन्थ टीकासहित प्रकाशित थे। इसमें यह ग्रन्थ 'स्वरूप सम्बोधन' नाम से ही प्रकाशित है। इसमें पं० खूबचन्द शास्त्री कृत संस्कृत टीका तथा पं० अजित कुमारशास्त्री कृत हिन्दी टीका भी थी; किन्तु ये दोनों टीकायें आधुनिक विद्वानों द्वारा रचित होने से इनका उपयोग मैंने नहीं किया है। इन दोनों टीकाओं के अतिरिक्त एक प्राचीन अज्ञातकर्तृक संस्कृत टीका भी दी गयी थी । यद्यपि इसमें टीकाकार एवं रचनासंवत् आदि के बारे में कोई उल्लेख नहीं है, तथापि यह टीका प्राचीन प्रतीत होती है; इस बात का पोषक प्रमुख प्रमाण है- आधुनिक टीकाओं में अनुपलब्ध 21वाँ पद्य ( तथाप्तीवतृष्णावान् .) इसमें विद्यमान है तथा अज्ञात टीकाकार ने उसकी टीका भी की है टीका के प्राक्कथन में ग्रन्थकर्ता का नाम 'अकलंकदेव' एवं ग्रन्थ का नाम 'स्वरूप-सम्बोधन' दिया गया है। तथा ग्रन्थरचना का उद्देश्य 'समस्त भव्य जीवों को अनेकान्तरीति से जीव- पदार्थ का प्रतिपादन करना' बताया गया है। टीका के अन्त में 'पदार्थकथनात्मिका वृत्तिः' कहकर इस टीका का स्वरूप 'प्रत्येक पद का अर्थ कथन करनेवाली 'वृत्ति टीका' सूचित किया है। इसमें मूलग्रन्थ को पच्चीस श्लोकप्रमाण तथा अन्तिम 26वें पद्य ( इति स्वतत्त्वं ...... ) को उपसंहाररूप माना गया है। I समीक्षा- यह टीका अज्ञातकर्तृक भी है, सरल एवं संक्षिप्त भी है तथा इसका रचनाकाल आदि भी अज्ञात है; तथापि यह अनेकदृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। प्राचीनता और संभवत: किसी विशिष्ट श्रमण के द्वारा रचित होना- ये तो इसकी महत्ता का आधार हैं ही, साथ ही इसमें जो विशेषार्थ उत्थानिकायें दी गयीं हैं; वे भी कम महत्त्व की नहीं हैं। टीकाकार ने अध्यात्मप्रधान दृष्टि से इस टीका की रचना की है, फिर भी इस ग्रन्थ को निश्चय व्यवहार दोनों नयदृष्टियों से 87 -
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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