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________________ संस्कृत टीकाकार की प्रशस्तिभट्टाकलंकचन्द्रस्य सूक्तिनिर्मलरश्मयः । विकासयन्तु भव्यानां हृत्कैरवसंकुलम् ।। भट्टरफलंकदेवैः स्वरूपसंबोधनं व्यरचितस्य । टीका केशववर्ये कृता स्वरूपोपलब्धिमावाप्तुम् ।। ॥श्री वीतरागाय नमः ।। हिन्दी अनुवाद भट्ट अकलंकदेवरूपी चन्द्रमा की सूक्ति (सद्वचन) रूपी निर्मल रश्मियाँ (किरणे) भव्यजीवों के हृदयकमलिनियों के समूह को विकसित करें (खिलायें-मुकुलित करें)। भटट अकलंकदेव के द्वारा रची गयी 'स्वरूप-सम्बोधन' नामक इस कति की टीका केशववर्य (केशवण्ण?) के द्वारा निजस्वरूप की उपलब्धि करने के लिए की गयी है। ।। श्री वीतराग परमात्मा के लिए नमस्कार है।। विशेषार्थ:-यह पद्यात्मक ग्रंथ इस अन्तिम पद्य के छोड़कर 'अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध है। धवला आदि ग्रन्थों में 'अनुष्टुप् छन्द को प्रमाणपद' कहा गया है। यहाँ संस्कृत टीकाकार में 'पञ्चविंशतिग्रंथप्रमाणग्रन्थः' कहकर 'ग्रंथप्रमाण' पद से धवला के प्रमाणपद को संकेतित किया है। वैसे भी जिनवाणी में अनुष्टुप् छन्द की मात्राओं के परिमाण के अनुसार गणना करके यह ग्रन्थ इतने श्लोकप्रमाण है' - ऐसा ग्रन्थ का परिमाण बताये जाने की परम्परा है.। ध्यातव्य है 'अनुष्टुप' छन्द को ही श्लोक' नाम से जाना जाता है। इसमें टीका का उद्देश्य 'आत्मस्वरूप की उपलब्धि' बताया है। समयसार के व्याख्याकार आचार्य अमृतचन्द्र ने भी समयसार अन्ध की व्याख्या का फल अपने परिणामों की परमविशुद्धि होना बताया है "मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तेर्भवतु समयसार-व्याख्ययैवानुभूतेः ।।" 1. समयसार-आत्मख्याति टीका, मंगलाचरण; पद्य 3। 79
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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