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________________ वस्तुत: यहाँ स्वरूप का आलम्बन लेने की प्रक्रिया प्रारम्भ होने के परिणामों की चर्चा है - ऐसा संकेत स्वयं कन्नड़ टीकाकार महासेन पंडितदेव ने दिया है। तष्णा' शब्द का प्रयोग यहाँ गंभीर अभिप्राय का सूचक है। "यह पदार्थ मुझे पुनः प्राप्त हो ऐसी भावना से किया गया प्रयत्नविशेष तृष्णा से ही होता है।'' यह तृष्णारूपी पिशाचिनी ऐसी भयंकर है कि जिसकी शान्ति के लिए तीन लोकों की सम्पत्ति भी कम पड़ती है। जिस किसी साधक के तृष्णारूपी पिशाची नष्ट हुई है, उसी का शास्त्राध्ययन, चारित्रपालन, विवेक, तत्त्वनिर्णय एवं ममत्त्वत्याग सार्थक है। जब तक मनरूपी जड़ में ममत्वरूपी जल से निर्मित गीलापन रहता है, तब तक महातपस्वियों के भी तृष्णारूपी बेल हरी-भरी रहती है। अत: ज्ञानीजन बुद्धिपूर्वक लोभ को नियन्त्रित करके, सन्तोषरूपी रसायन द्वारा सन्तुष्ट होते हुए अनित्य-अशरण आदि भावनाओं के चिन्तनपूर्वक दुष्टा तृष्णा का विनाश करते हैं। इन अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन/अनुप्रेक्षण में समतारूपी सुख उत्पन्न होता है एवं तृष्णाजन्य आकुलता का विनाश होकर सुखानूभूति ऐसे सघनतन होती जाती है; जैसे कि पवन का सहयोग पाकर अग्नि की ज्वाला प्रचंडतर होती जाती है। कविवर दौलतराम जी ने लिखा है इन चिन्तत समसुख जागै, जिम ज्वलन पवन के लागे।" अत: उन्होंने इन वैराग्योत्पादक भावनाओं के चिंतन की प्रेरणा आत्मीयतापूर्वक दी है "वैराग्य उपावनमाई, चिन्तौ अनुप्रेक्षा भाई।" . 1. न्यायदर्शनसूत्र टीका, 4/13 1 2. ज्ञानार्णव, 16:201 3. वहीं, 17/111 आत्मानुशासन, 2521 5. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 3391 6. छहढाला, पाँची ढाल। 6
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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