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लिखा है कि तत्त्व-अभ्यास की महिमा से तत्त्व-अभ्याससहित जीव तिर्यचादि गति में भी जाये, तो वहाँ भी तत्त्वाभ्यास के संस्कार के बल से वह सम्यादर्शन को प्राप्त कर सकता है। तथा तत्त्व-अभ्यासरहित जीव स्वर्गादि गति में भी जाये, तो भी सम्यक्त्व प्राप्ति का ठिकाना नहीं है।
इस पद्य में निर्देशपरक 'भव (हो जाओ) पद का प्रयोग दो बार हुआ है। पहिले निर्मोह होने का निर्देश (निर्मोहो भव) दिया और फिर तत्त्वचिन्तन में संलग्न होने (तत्त्वचिन्तापरो भव) का निर्देश दिया है। निर्मोह होने का जो निर्देश है, वह निवृत्तिपरक आदेश है; तथा तत्त्वचिन्तन में संलग्न होने का आदेश प्रवृत्तिपरक है। एक से बचना/हटना है तथा दूसरे को अपना है । अत: दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। 'निर्मोहो भव' -इस वाक्यांश में जो मोहरहित हो जाने की प्रेरणा है-वह सामान्य जीवों के लिए स्थूल मोह (स्त्री-पुत्र-धन-सम्पत्ति आदि के प्रति तीव्र आसक्ति एवं ममत्त्वरूप परिणाम) के निषेध का सूचक है। क्योंकि वस्तुत: तो मोहरहित होने के लिए ही तत्त्वाभ्यास किया जाता है। जब जीव सर्वत: मोहरहित हो ही जायेगा, तो फिर तत्वाभ्यास की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। अत: 'उदासीनभावों के आश्रयपूर्वक निरन्तर किये गये तत्त्वचिन्तन के परिणामस्वरूप जीव सर्वत: मोहरहित हो सकता है। ऐसा अभिप्राय समझकर उसी की प्रेरणा भट्ट अकलंकदेव के इस पद्य से प्राप्त करनी चाहिए।
1. द्र० सर्वार्थसिद्धि; 4131 2. बारस अणुवेनला, 78
एवं उदासीनरूप सब ध्यान के आलम्बन हैं। -महापुराण, 21:17। मोक्षमार्ग प्रकाशक, 7:306 तथा "मुकति के साधक देसविरती मुनीश ।
तिनकी अवस्था तो निरावलम्ब नाहीं है।।" __ मोक्षमार्ग प्रकाशक, अध्याय 7. पृ0 2600
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