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________________ कपड़ों में, किस तरह कपड़ों में? नीले रंग में रंगे हुए कपड़ों में। हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-नीले रंग में पूरी तरह रंगे हुए वस्त्र में कुंकुम का रंग दुःख-अत्यन्त कष्टपूर्वक जैसे-तैसे चढ़ाया जा सकता है, उसी प्रकार) रागादि कषायों से कलुषित चित्त वस्तुरूप को जिस कारण से ग्रहण करना) निश्चितरूप से अशक्य है। इसी कारण से रागादि दोषों को दूर करती हुई (जो भावना) हो, उसी (स्वरूप में स्थिरतारूप) स्वास्थ्य से वस्तुस्वरूप का ज्ञान होता है। (और) उस वस्तुस्वरूप के ज्ञान से शुद्धात्म भावना की प्राप्ति होती है-ऐसा भावार्थ है। विशेषार्थ-पिछले पद्य में यह कहा था कि 'राग-द्वेष से रहित होकर आत्मतत्व की भावना करना चाहिए, तो यह प्रश्न उठा कि 'राग-द्वेष से रहित होकर' - यह शर्त क्यों लगायी? क्योंकि वास्तव में तो राग-द्वेष से रहित अरिहन्त एवं सिद्ध परमात्मा होते हैं, दसवें गुणस्थान के अन्त तक राग रहता है; तब एक अध्यात्मतत्त्व का पाठक व सामान्य साधक "राग-द्वेष से रहित होकर आत्मतत्त्व की भावना करे"- यह किस अभिनाय से कहा? - इसी जिज्ञासा का समाधान इस पद्य में आया है। चार कषायों में क्रोध एवं मान का द्वष' में अन्तर्भाव है, तथा माया एवं लोभ का 'राग' में अन्तर्भाव है। इस प्रकार राग-द्वेष अर्थात् चारों कषायें - यह पर्यायवाची समझना चाहिए। पिछले पद्म में 'राग-द्वेष से रहित होकर' यह जो निर्देश दिया था, उसका कारण यह था कि कषायों से भरे हुए मन में या तीव्रकषाय के परिणामों से कभी भी आत्मतत्त्व समझ में नहीं आ सकता है। समझाने/लिखनेवाले आचार्य कितना ही सन्तुलित एवं स्पष्ट वर्णन करें; किन्तु कषाय से उद्विग्न श्रोता/पाठक को वह अकषायस्वभावी आत्मा का स्वरूप कभी भी समझ में नहीं आ सकेगा। कदाचित् वह कषाययुक्त चित्तवाला व्यक्ति शब्दों इस वर्णन की प्रशंसा/अनुमोदना भी करे, तो भी यह नहीं समझना चाहिए कि उसे आत्मतत्त्व कुछ भी समझ में आया है। अनुभवगम्य तत्व को जो शब्दजाल या विकल्पजाल में लेना चाहता है, उसके प्रति तो यह पंक्तियाँ सार्थक हैं - "करि फुलेल को आचमन, "मीठो” कहत बताय । रे गंधी ! मति अन्ध तूं, गंध दिखावत काह ?" जैसे सूरदास का 'काली कमरिया' पर दसरा रंग नहीं चढ़ सकता, वैसे ही कषायों की वासना से भरा हुआ मन कभी आत्मतत्त्व को नहीं समझ सकता है। 52
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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