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बाईस प्रतियों में से ग्यारह प्रतियों तो मूलमत्र हैं, तथ शेष ग्यारह प्रतियों में से छह प्रतियों में कन्नड़ टीका एवं शेष पाँच प्रतियों में संस्कृत टीका मिलती है। उपलब्ध प्रतियों में दशा की दृष्टि से उत्तम अवस्था में मात्र तीन प्रतियाँ हैं, चार प्रतिय जीर्ण अवस्था में हैं, तथा शेष पन्द्रह प्रतिय की दशा सामान्य है। ____ भाषा की दृष्टि से इन बाईस प्रतियों में से मात्र सात प्रतिय ही शुद्ध और सुवाच्य हैं, शेष सभी प्रतियों में लिपिकारों की अल्पज्ञता या प्रमाद के कारण अक्षरों, शब्दों एवं हिज्जे की अशुद्धियाँ रहीं है। उक्त सात प्रतियों में से भी मात्र पाँच प्रतियाँ ही पूर्ण, शुद्ध एवं पाठसम्पादन के योग्य होने से उन्हीं का प्रयोग किया गया है, वे हैं – ग्रन्यांक 26, 101, 514, 529 और 552। इन प्रतियों का सामान्य परिचय निम्नानुसार है।
ग्रन्यांक 26 – इस प्रति में कुल चार पत्र हैं । प्रस्तुत पाठसम्पादन कार्य में जो कन्नड़ टीका ली गयी है, उसकी आधार प्रति यही है। इसके प्रारम्भ में 'आचार्य अकलंकदेव-विरचिता स्वरूप-सम्बोधन-पञ्चविंशति कहकर टीकाकार का मंगलाचरण (श्रिय पति...) दिया गया है, तथा तदुपरान्त टीकाकार ग्रन्थ के प्रथम पद्य की उत्थानिका में अपनः परिचय, टीक' का उद्देश्य आदि बताते हुए कहते
___ "श्रीमन्नयसेन-पण्डितदेव-शिष्यरप्प श्रीमन्महासेन पंडितदेवरु भव्यसार्थसंबोधनार्थमागि स्वरूपसम्बोधन-पंचविंशति एंब ग्रंथमं माडुत्तमा ग्रंथद मोदलोलु इष्टदेवतानमस्कारमं माडिदपरु-” |
तथा अन्त में मूलग्रन्थकार, अपनी परम्परा, ग्रन्थरचना-निमित्त एवं टीका का संक्षिप्त उल्लेख निम्नानुसार करते हैं-- ___ "श्रीमदकलंक कर्त मोदलागे षट्तर्कषण्मुखरुं समन्तादध्यात्मसाहित्यवेदिगर्छ मूलकर्तृगर्छ नामधेयर्मप्प । श्रीमन्महोसनपण्डितदेवरिद, सूरस्त समस्तगणाग्रगण्यरप्प सैद्धान्तचक्रवर्ती श्रीमत् पिरिय वासुपूज्य सैद्धान्तदेवर गुडनप्प पद्मरस स्वरूपसम्बोधन-पंचविंशतिय नवरससमीषदोळ केळुत्तं कर्नाटकवृत्तियं स्वपरहितमागि माडिसिदं । मंगलमहा । श्री-श्री-श्री-श्री-श्री। श्री बीतरागाय नम: ।"
प्रन्यांक 101- इस प्रति में कुल सात पत्र हैं। इसमें भी वही पूर्वोक्त कन्नड़ टीका है। मंगलाचरण भी वही निय:पति.....) है, मात्र टीकाकार का नाम 'महासेन पंडितदेवरु' की जगह 'श्री पद्मसेन पंडितदेवरु दिया गया है, शेष
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