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________________ मैं ही एकमात्र (ज्ञातादृष्टा) हूँ, अन्य कोई नहीं है- इस प्रकार की भावना की दृढ़ता चारित्र है-ऐसा स्वीकार किया गया है। समीचीन (सम्पक) श्रद्धान और ज्ञानपूर्वक जो अन्य पदार्थों पर आश्रित चरण (क्रिया-आचरण) है, उसे व्यवहार चारित्र कहा गया है; (तथा) निजात्मस्वरूप में ठहर कर अविचल स्थिति करना, (उसे) निश्चय चारित्र कहा गया है-ऐसा अभिप्राय है। विशेषार्थ:-सम्यग्ज्ञान के प्रकरण में न्यायशास्त्रीय विशेषज्ञता की हल्की-सी झलक दिखाने के बाद सम्यकचरित्र का निरूपण करने वाले इस पद्य (13वें) में अकलंकदेव के स्वर पुन: विशुद्ध आध्यात्मिक हो गये हैं। तत्त्वार्थराजवार्तिक में उन्होंने संसार की कारणभूत क्रियाओं की निवृत्ति के लिए तत्पर ज्ञानी के बहिरंग एवं अन्तरंग तप आदि को 'सम्पक्चारित्र' कहा है, जबकि यहाँ निश्चय और व्यवहार दोनों में ही आध्यात्मिक दृष्टि की प्रधानता रखी है। उन्होंने निरन्तर होने वाली दर्शन और ज्ञान की पर्यायों अथवा 'उपयोग' का विषयभूत (आलम्बन) पदार्थ एक ही बना रहना (स्थिर बना रहना) अर्थात् ध्रुवज्ञायक शुद्धात्मस्वरूप का निरन्तर उपयोग का विषय रहना ही 'निश्चय सम्यक्चारित्र' है - ऐसा कहा है। तथा बाह्य क्रियाओं को करने अथवा बाह्य वस्तुओं के त्याग-ग्रहण आदि को 'व्यवहारचारित्र' कहने की अपेक्षा उन्होंने सुख और दु:ख की समस्त स्थितियों/संयोगों में हर्ष या विषाद से रहित होकर माध्यस्थ भाव रखने को व्यवहारचारित्र बतलाया है। - आचार्यप्रवर कुन्दकुन्दप्रणीत नियमसार 2 से लेकर कविवर दौलतराम जी विरचित 'छहढाला' पर्यन्त समस्त आध्यात्मिक ग्रन्थों में सम्यक्चारित्र का लगभग ऐसा ही आध्यात्मिकदृष्टिप्रधान वर्णन प्राप्त होता है। ___ चौदहवें पद्य में सम्पक्चारित्र विषयक इसी चर्चा का और खुलासा करते हुए 'माध्यस्थ भावना' को समझाया है। आचार्यदेव कहते हैं कि सुख और दुःख की प्रत्येक परिस्थिति में, साता और असाता के उदय की हर स्थिति में अपने आपको उसका ज्ञाता-दृष्टा अनुभव करना चाहिए, उसका कर्ता या भोक्ता नहीं समझना चाहिए। मैं एक ज्ञापकमात्र हूँ' - इसी भावना की दृढ़ता को उन्होंने 'सम्यक्चारित्र' बताया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भेदविज्ञान का अभ्यास होने पर जीव 'मध्यस्थ' (माध्यस्थ भावना युक्त) होता है-ऐसा स्वीकार किया है, तथा कहा है कि इस माध्यस्थ भावना से ही चारित्र अर्थात् निश्चयचारित्र की उत्पत्ति होती है। चूंकि व्यवहार निश्चय का हेतु (साधक) होता है, अत; माध्यस्थ भावना साधक होने
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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