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जाती है। प्रसन्न एवं गम्भीर वैदर्भी रीति से प्रवहमान इस सरस्वती नदी के प्रवाह में सहृदय पाठकों के मन रूप मीन विलासपूर्वक उद्वर्तन, निवर्तन करने लगते हैं। अनुप्रास, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा और विरोधाभास आदि अलंकार इसे विशेष रूप से उज्ज्वल और विभूषित करते है। श्यामकल्याण, कव्वाली, प्रमाती, सारंग, काफी इत्यादि रागों की सुन्दर ध्वनि उसको स्वाभाविक सुन्दरता को दुगुणी करती हुई अन्य काव्यों में दुर्लभ ऐसे दिव्य संगीत को रचती है। महाकाव्य के अनुकूल नगर वर्णन, नायिका वर्णन, बिलास वर्णन, निसर्ग वर्णन आदि गुण भी सतण रूप से इस काव्य में यथा स्थान प्रसंग के अनुसार [ये गए है। महाकाव्य के होते हुए भी इसमें जैन आचार सौर दर्शन रूप समुद्र के मन्यन से उत्पन्न नवनीत ( मक्खन ) ऐसी कुशलता से समालिम्पित है कि जिससे इस काम्य की कान्सासम्मित मुन्दर उपयोगिता मूर्तिमती होकर दिखाई देती है । यह काश्य केवल दर्शनशास्ता ही नहीं, ब िहगाव: बिहा धर्मशास्त्र भी है, जिसे कवि ने मोक्षमार्ग पर चलने वाले मुनि और श्रावकादि के उद्देश्य से निर्मित किया है। विलासिनी ब्राह्मणी, राजरानी और नर्तकी वेश्या आदिक, जो कि एक मात्र सांसारिक विषयों के लोलुपी हैं, उनके मुखों से भी उपदेश कराया है जो यह अभिप्राय व्यक्त करता है कि धर्म और दर्षन के निर्णय में मनुष्य को सदा विवेकशील होना चाहिए, क्योंकि अपरी तौर से किसी वस्तु का देखना कदाचित् भ्रामक भी हो सकता है। दूसरी बात यह भी भी सूचित होती है कि उस समय ऐसे अतिषिषयी लोग भी शास्त्र और दर्शन के तत्वान थे तथा उनका बहलता से प्रचार था।'
सुदर्शनचरित के विषय में उपयुक्त विभिन्न रचनाओं में जो वैशिष्ट्य दृष्टिगोचर होता है, उसके विषय में सिद्धान्तशास्त्री पं० हीरालाल जी ने सुदर्शनोदय काव्य की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना में प्रकाश डाला है। प्रमुख वैशिष्ट्य इस प्रकार है
हरिषेण ने अपने कथाकोश में सुदर्शन का न कामदेव के रूप में उल्लेख किया है और न अन्तकृत् केवली के रूप में ही । वलशान उत्पन्न होने पर उनके आठ प्रतिहार्यों का वर्णन करते हुए लिखा है कि मुण्ड केवली के समवशरण की रचना नहीं होती है । यथा
छत्रत्रयं समुत्तों प्रकारो हरिविष्टरम् । मुण्डकेवलिनो नास्ति सरणं समवादिकम् ।। १५७ ।। छनमेकं शशिच्छायं भापीठ मनोहरम् ।
मुण्टकेबलिनो नूनं मुयमेतत् प्रजायते ।। १५८ ।। १. सुदर्शनोदय काग्य, पृ० ११ ।