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एकादशोऽधिकारः
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(उन) संत और सर्वदशों में अगन्तवीर्य को
ले लिया । वे अनन्त सुख से सम्पन्न और परम आनन्ददायक हो गए ।। ५२ ।। वर्द्धमान जिनेन्द्र के अन्तकृत्केवली स्वामी शरणरूप जिन भव्य जीवों के सुख के लिए जियें ॥ ६० ॥
समस्त देवेन्द्र, नागेन्द्र, चन्द्र, सूर्य आदि सुरेश्वर अपने आसन के कम्पन से केवलज्ञान सम्पत्ति को मानकर, चतुर्निकाय के देवों का समूह ने अपनी स्त्रियों सहित महाभक्ति से आकर शुभ गन्धकुटी का निर्माण कर, उत्तम छत्र और दो चामरों से सुशोभित सिंहासन (बनावा ) तथा (वे) परम आनन्द से भरे हुए पुष्प वर्षा कर रहे थे ।। ६१-६३ ।।
जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, पीयूष, रत्नदीपक, काला अगरु, सुत्राभित धूप और नाना प्रकार के फलों से, पाप के नाशक हजारों गीत, नृत्य और बाघों से उन जगत्पूज्य श्री सुदर्शन जिन की पूजा कर, आधे क्षण में हो लोकालोक को प्रदर्शित करने वाले वीतराग की वे सार रूप सम्पत्ति को देने वाली स्तुति करने में प्रवृत्त हो गए । ६४-६६ ॥
हे दयासिन्धु ! तुम्हारी जय हो हे केवलज्ञान रूपो नेत्र तुम्हारी जय हो । है सर्वदर्शी तुम्हारी जय हो । हे अनन्तवीर्य के धारी तुम्हारी जय हो ॥ ६७ ॥
अनन्त सुख से संतृप्त हे परमोदव ! आपकी जय हो । हे दोष रूपी वनाग्नि के लिए मेघ स्वरूप त्रिजगरपूज्य ! तुम्हारी जय हो || ६८ ॥ तुम समस्त उपसर्ग के विजेता हो, समम्त सन्देहों का चाले हो, संसार से डरने वाले भव्यों को संगार समुद्र के हो ॥ ६९ ॥
अच्छे ब्रह्मचारियों में घोर ब्रह्मचारी तुम ही हो । तपस्वियों में महान् तीव्र तप के कर्ता आप ही हो || ७० ||
नाश करने तारने वाले
हे हितोपदेशी देव! तुम भव्यों पर कृपा करने वाले हो । आप प्रतापियों में प्रतापी हैं, कर्म शत्रु का क्षय करने वाले हैं ॥ ७१ ॥
बन्धुओं में आप महान् हैं, भव्यों के समूह के रक्षक हैं, हे जगत्प्रभु ! आप दोनों लोकों की महालक्ष्मी के कारण हो ॥ ७२ ॥
आप गुणरूपी समुद्र के स्वामी हैं, आपका कौन पार पा सकता है ? जड़ता को प्राप्त क्या हम पृथ्वी पर स्तुति करने में समर्थ है || ७३ ॥