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एकादशाऽधिकारः
वह भी देव के साथ सात दिन तक अत्यधिक युद्ध कर मानभङ्ग पाकर इस प्रकार चली गईं, जैसे सुर्व के कारण रात चली जाती है।। ४३ ।।
तब सुदर्शन स्वामी उस घोर उपसगं में ध्यान रूप आवास में स्थित रहकर नेर के समान स्थिर अभिप्राय काले हो गये।
वे शूरवीर कर्म के नष्ट करने में अत्यधिक सावधान हो गए। प्रकृतियों का क्रम मेरे द्वारा किञ्चित् निरूपित किया जाता है ।। ४५ ।।
भुबन में उत्तम सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान में पाँचवें, छठे तथा सातवें में यतोश्वर, धर्मध्यान के प्रभाव से उन स्थानों में अथवा क्वचित् तीन मिथ्यात्व प्रकृतियाँ, चार दुःकपात्र, पाप की कारण देवायु, नरकायु और तिर्यंचायु इन दश प्रकृतियों को पहले हो मुनीश्वर नाश कर, आठवें गुणस्थान में क्षपकश्रेणी के आश्रित हो गए। सुधी अपुर्वकरण होकर नवम गुणस्थान में स्थित होकर, परमार्थ के जानने वाले शुक्लध्यान के पूर्व चरण से पृथक्त्वत्रोतकबीचार नाम से विचारवान् होकर), अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के पूर्व भाग में आतप, चार जातियाँ, तीन निद्रायें, दो नरक, स्थावर, सूक्ष्म, तिर्यतिक, उद्योत इन सोलह प्रकृतियों का क्षय कर दूसरे में अत्यधिक रूप से आठ कषाय, तोसरे में नपुंसक चौथे में स्त्रैण, पाँचवें में हास्यादि छह, छठे में पुंवेद, तीन भागों में पृथक्पृथक् क्रोध, मान और माया, नचम में छत्तीस प्रकृति का विनाश कर, सूक्ष्मसांपरायगुणस्थान में सूक्ष्म लोभ का विनाश कर क्षीणमोह गुणस्थान में दूसरे शुक्लध्यान का आश्रम ले लिया । उपान्त्य समय में सुधी ने प्रचला सहित निद्रा को छोड़कर अन्तिम समय में दर्शन की घाती चार, पाँच प्रकार से ज्ञान का विनाश करने वाली, पाँच प्रकृतियाँ, पांच अन्त. राय, इस प्रकार घातिकर्म की प्रेसठ प्रकृतियाँ कही गई हैं ।। ४६-५७ ।।
इन्हें नाश कर तत्क्षण ही केवलज्ञानरूपी सूर्य हो गए । सयोगकेवलो गुणस्थान में वे सर्वप्रकाशक हो गए ।। ५८॥