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________________ एकादशोऽधिकारः १९५ हे सुधी ! यहाँ आए हुए सब जगह समस्त मनोहर वस्तुओं से युक्त मेरे मन्दिर में मेरे सङ्ग से तुम्हें स्वर्ग ( मिल ) जायगा ॥ १५ ॥ सदा प्राणों पर प्रहार करने वाले तुम्हारे तप रूप कष्ट से क्या ? मेरे साथ भोगों को भोगते हुए तुम सर्वथा सुस्ती होओ ।। १६ ॥ अनन्तर धीर, वीर एक मन वाले मुनि उससे बोले । है है मुग्धा! तुम पाप के कारण संसार की स्थिति को नहीं जानती हो ॥ १७ ।। __ समस्त लोगों का शरीर सर्वथा अपवित्रता का घर है । जल के बुलबुले के समान आधे क्षण में ही नष्ट हो जाता है ।। १८ ।। भोग नाग के शरीर के समान आभा वाले हैं, तत्क्षण प्राण हरण करने वाले हैं । सम्पसियां विमति के समान है, बिजली के समान अत्यन्त चञ्चल हैं ।। १९ ॥ करोड़ों सुख को करने वाले शोलरूपी रल का परित्याग कर जो बुरे अभिप्राय वाले अधम यहाँ दुराचार करते हैं ।। २० ॥ वे विषयासक्त मूढ़ अपने पाप से नरक जाते हैं। वहाँ जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त कवि की बाणो के अगोचर छेदन, भेदनादिक दुःख पाते हैं अतः सूदुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर शुभ कार्य किया जाता है ।। २१-२२ ।। इत्यादिक अत्यधिक रूप से कहकर वे मुनि दो प्रकार से संन्यास ग्रहण कर मेरु के समान निश्चल अभिप्राय वाले हो गए ।। २३ ।। स्वामी ने वैराग्य की वृद्धि के लिए चित्त में विचार किया। स्त्रियों का शरीर अपवित्र वस्तुओं का घर और पाप का कारण है ।। २४ ।। ___ बाहरी सौन्दर्य से युक्त और किंपाक फल के समान कठोर है। कामियों के पतन का आगार है ।। २५ ।। निश्चय से यहाँ जगत् में दुष्ट स्त्रियाँ तत्क्षण प्राण हरण करने वाली होती हैं । सपिणियों के समान यहाँ मूढ़ों को ठगने में निपुण हैं || २६ ।। (ये नरक रूपी गड्ढे में गिराने वाली हैं, स्वयं गिरने में तत्पर हैं । भोले मृग के समूहों के लिए प्राणनाशक रस्सी हैं ॥ २७ ।। प्रमादी कामान्ध व्यक्ति व्यर्थ ही प्रीति करते हैं। जैसे धतूरा खाने वाले दुष्ट व्यक्ति स्वतत्व को नहीं जानते हैं ।। २८ ।।
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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