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एकै कस्य पृथग्दशकोटीकोट्यः प्रमाणमुद्दिष्टम् । वायुपमानावेतो समाश्रितौ भवति कल्प इति ॥४॥
अन्वयार्थ - (पृथक् ) अलग-अलग (ऐकै कस्य) एक - एक का (अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी का (दशा कोटी कोट्यः)- दश कोड़ा कोड़ी (एक करोड़ एक करोट - एन लोटा-कोड़ी दश = टुण कोड़ा-कोड़ी) (वायुपमानौ) सागर प्रमाण (एत्तौ) ये दोनों अवसर्पिणी एनम् उत्सर्पिणी (समाश्रितौ) सागर प्रमाण होकर (कल्प इति) कल्प नामवाला (भवति) होता है।
अर्थ- अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी अलग-अलग दश-दश कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण हैं और दोनों मिलकर बीस कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण एक 'कल्प' काल कहलाता है।
अवसर्पिणी दश कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण है उत्सर्पिणी भी दश कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण हैं। दोनों मिलकर बीस कोड़ा-कोड़ी सागर काल को एक कल्प काल कहते हैं।
तत्रावसर्पिणीयं प्रवर्तमाना भवेत्समाऽस्याश्च । कालविभागाः प्रोक्ताः षडेव कालप्रभेदज्ञैः ॥५॥
अन्ययार्थ- (काल प्रभेदज्ञैः) काल के भेदों को जानने वाले (वीतराग भगवन्तों द्वारा) (षट्र) छह (एव) ही (काल विभागाः) काल के विभाग (प्रोक्ता) कहे गये हैं। (तत्र) उन काल विभागों में (इयं) यह वर्तमान (अवसर्पिणीयं प्रवर्तमाना) अवसर्पिणी जिसमें उत्सेध-आयु आदि की घटती है वह प्रवर्तमान है (चल रहा है), (अस्याः ) इस अवसर्पिणी के समान उत्सर्पिणी के भी छह कालभेद हैं।
अर्थ-काल के भेदों के जानने वाले जिनेन्द्र सर्वज्ञ भगवन्तों ने उन अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी प्रत्येक के छह-छह काल विभाग बताये हैं। अवसर्पिणी के छह और उत्सर्पिणी के भी छह ।
सुषमसुषमायाद्या सुषमाऽन्या सुषमदुःषमेत्यपरा। दुष्षमसुषमान्या दुष्षमाऽतिपूर्या पराऽस्यैव ॥६॥ अन्वयार्थ- (सुषमसुषमायाद्या) सुषमा सुषमा नामका आदिम प्रथम
श्रुतावतार
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