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अथ पुष्पदन्तमुनिरप्यध्यापयितुं स्वभागिनेयं तम्। कर्मप्राकृतिप्राभृतमुपसंहार्यैव षड्भिरिह खण्डैः ।।१३४॥ वांच्छन् गुणजीयादिकविंशतिविधसूत्रसत्यप्ररूपणया। युक्तं जीवस्थानाधधिकारं व्यरचयत्सम्यक् ॥१३५ ॥
अन्वयार्थ- (अथ) इसके अनन्तर (पुष्पदन्त मुनिरपि) पुष्पदन्त मुनि भी (त) उस (स्वभागिनेयं) अपने भगिनी पुत्र को (अध्यापयितुं) पढ़ाने के लिए (षड्भिः सण्डै.)
डों के द्वाह इह) यहाँ (गुणजीवादिकविंशतिविधसूत्रसत्प्ररूपणया) गुणस्थान, जीवस्थान आदिक बीस प्रकार की सत्प्ररूपणाओं से युक्त, (कर्मप्रकृति प्राभृतं उपसंहार्य एव) कर्म प्रकृति प्राभूत का उपसंहार करके संचय करके (जीवस्थानादि अधिकार वाञ्छन्) जीवस्थान आदि अधिकारों की इच्छा करते हुए, (सम्यक् ) सम्यक् प्रकार (व्यरचयत) रचना की।
अर्थ-तदन्तर श्री पुष्पदन्त मुनिराज ने अपने उस भागिनेय जिनपालित को पढ़ाने के लिए इस करहाट नगर में छह खण्डों के द्वारा गुणस्थान, जीवस्थान आदि बीस प्रकार की सत्प्ररूपणा से युक्त कर्मप्रभृतियों से युक्त प्रकरण का संक्षेप कर सम्यक्रीति से जीवस्थानादि अधिकार की रचना की।
सूत्राणि तानि शतमध्याप्य ततो भूतबलिगुरोः पार्श्वम्। तदभिप्रायं ज्ञातुं प्रस्थापयदगमदेषोऽपि ||१३६ ।।
अन्ययार्थ- (तानि) उन (शतं सूत्राणि) सौ सूत्रों को पढ़ाकर (ततो) तदनन्तर (भूतबलि गुरोः पार्श्व) भूतबलि गुरु के निकट (तदभिप्रायं ज्ञातुं) उसके अर्थ को जानने के लिए (प्रस्थानापयत्) भेजा (एषोऽपि) यह जिनपालित भी (अगमत्) वहाँ गये पहुँचे।
अर्थ-उन सौ सूत्रों को पढ़ाकर अनन्तर भूतबलि गुरु के निकट उनका अर्थ जानने के लिए भेजा। वह जिनपालित भी शिष्यबुद्धि से उनके पास पहुंचे।
तेन ततः परिपठितां भूतबलिः सत्प्ररूपणां श्रुत्वा । षट्खण्डागमरचनाभिप्रायं पुष्पदन्त गुरोः ॥१३७ ॥ विज्ञायाल्पायुष्यानल्पमतीन्मानवान् प्रतीत्य ततः। द्रव्यप्ररूपणाधिकारः खण्डपञ्चकस्यान्वक् ॥१३८ ।।
श्रुतावतार