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श्रीमद - इन्द्रनन्दि- आचार्य विरचितः
श्रुतावतारः
सर्व नाकीन्द्रवन्दितक ल्याणपरम्परं देवम् । प्रणिपत्य वर्धमानं श्रुतस्य वक्ष्येऽहमवतारम् ||१||
अन्वयार्थ - ( अहम् ) मैं ग्रन्थकर्ता इन्द्रनन्दी (सर्व नाकीन्द्र वन्दितकल्याणपरम्परं) समस्त देवेन्द्रा द्वारा बन्दित कल्याण परम्परा वाले (देव) देवाधिदेव वीतराग देव (वर्धमानं ) अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामी को ( प्रणिपत्य ) रमन करके ( श्रुतस्य) श्रुतज्ञान के निधान रूप आगम-शास्त्रों के (अवतार) अवस्था त्यतिको () कहूँगा या कहता हूँ ।
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अर्थ- श्री इन्दनन्दी आचार्य ग्रन्थ रचना की प्रतिज्ञा करते हुए तथा ग्रन्थ का 'श्रुतावतार' नाम देते हुए सर्वप्रथम उन महावीर भगवान को नमस्कार करते हैं जिनका एक नाम वर्द्धमान है जिनके गर्भ जन्म-दीक्षा ज्ञान एत्र मोक्ष कल्याणकों की पूजा समस्त देवों के अधीश्वरों इन्द्रों द्वारा की गई है। उन चौबीसवें अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्द्धमान भगवान् को शिर झुकाकर नमस्कार करने रूप मंगलाचरण के अनन्तर के ग्रन्थ रचना का संकल्प करते हैं और अपने इस रचे जाने वाले ग्रन्थ का नाम 'श्रुतावतार' देते हैं। 'अहं वक्ष्ये' इस पद के द्वारा ग्रन्थ के प्रामाणिक होने की सूचना मिलती है क्योंकि निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतराग सन्तों के वचन कभी अप्रामाणिक, असत्य नहीं होते। सर्वनाकी द्रवन्दितकल्याणपरम्परं देवं पदों द्वारा भगवान् बर्द्धमान स्वामी का महत्व प्रतिपादित करते हुए उन्हें शिर झुकाने का, नमस्कार करने का औचित्य प्रतिपादित किया गया है।
यद्यप्यनाद्यनिधनं श्रुतं तथाऽप्यत्र तन्निभेन मया । कालाश्रयेण तस्योत्पत्तिविनाशौ प्रवक्ष्येते ॥ २ ॥
अन्वयार्थ - (यद्यपि ) चूँकि ( श्रुतं ) श्रुतज्ञान भाव श्रुत ( अनाद्यनिधनं ) अनादि व अनिधन आदि - अन्तरहित है ( तथापि ) तो भी (अत्र ) यहाँ ग्रन्थ रचना के प्रसंग में ( तन्निभेन ) उसी के समान ( मया) मेरे आचार्य इन्द्रनन्दि द्वारा ( कालाश्रयेण ) काल के आश्रय से समय की अपेक्षा से ( तस्य ) उस श्रुत की,
श्रुतावलार
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