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अर्थ-तदन्तर भले प्रकार विद्या का साधन कर बड़े सन्तोषपूर्वक उन्होंने गुरु धरसेनाचार्य के निकट जाकर यथा तथ्य (जैसा हुआ) समस्त वृतान्त प्रकट किया।
सोऽप्यतियोग्याविति सञ्चिन्त्य ततः सुप्रशस्ततिथिवेला। नक्षत्रेषु तयोख्यिातुं प्रारब्धवान् ग्रन्थम् ॥१२४ ।।
अन्वयार्थ- (सोऽपि ) वह आचार्य धरसेन स्वामी भी (अति योग्यौ इति सञ्चिन्त्य) ये दोनों पुष्पदन्त और भूतबलि मुनि अति योग्य हैं- ऐसा विचारकर (ततः) तदनन्तर (सुप्रशस्त तिथि धेला नक्षत्रेषु) उत्तमतिथि, समय और नक्षत्र में (तयोः) उन दोनों के निमित्त (ग्रन्थं) आगम शास्त्र की (व्याख्यातुं) व्याख्या करना, (प्रारब्धवान्) प्रारम्भ किया।
अर्थ-उन महाराज धरसेनाचार्य ने “ये दोनों अत्यन्त योग्य हैं"- ऐसा सोचकर, उत्तम तिथि. मुहूर्त और नक्षत्र में उन दोनों के लिए आगम ग्रन्थ का व्याख्यान शुरू किया- अर्थात् उन्हें द्वादशाक जिनवाणी, विशेषतया कर्म सिद्धान्त पढ़ाना प्रारम्भ किया।
ताभ्यामान्यध्ययनं कुर्वाणाभ्यामपास्ततन्द्राभ्याम् । परममविलध्यभ्यां गुरुविनयं ज्ञानविनयं च ॥१२५ ॥ दिवसेषु कि यत्स्यपि गतेष्वथाषाढमासि सितपक्षे । एकादश्यां च तिथौ ग्रन्थसमाप्तिः कृता विधिना ॥१२६ ।।
अन्वयार्थ- (अपास्तनन्द्राभ्यां) तन्द्रा आलस्य रहित होकर (अध्ययनं कुर्वाणाभ्या) अध्ययन करने वाले गुरु की आज्ञा का उल्लंघन न करने वाले तथा ज्ञान की विनय करने वाले उन दोनों मुनियों द्वारा (कियत्तु दिवसेषु) कतिपय दिवस व्यतीत होने पर (आषाढ़ पासि) आषाढ़ के महीने में (सित पक्ष) शुक्ल पक्ष में (एकादश्यां तिथौ) एकादशी की तिथि में (विधिन!) विधिपूर्वक (ग्रन्धसमाप्तिः) ग्रन्थ की समाप्ति (कृता) की।
अर्थ-आलस्य छोड़कर, पूरी तरह सजग रहकर अध्ययन करने वाले तथा साथ ही गुरु की बिनय (आज्ञा) का उल्लंघन न करने वाले तथा ज्ञान की विनय का भी उल्लंघन न करने वाले उन दोनों (पुष्पदन्त, भूतवलि) मुनिराजों द्वारा कितने ही दिन व्ययीत होने पर आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में एकादशी की तिथि में विधिपूर्वक अध्ययन करते हुए आगम ग्रन्थ का अध्ययन समाप्त किया गया।
श्रुतावतार