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(कथयन्ति) कहकर दण्ड देते थे। (भरतः) भरत जो कि १४ कुलकरों के अतिरिक्त १५वें कुलकर थे वे हा मा धिक के अतिरिक्त (तनोदण्डन) शरीर दण्डन भी करते थे।
अर्थ-प्रतिश्रुति से सीमंकर पर्यन्त पाँच कुलकर हा! शब्द से दण्ड देते थे। सीमन्धर से अभिचन्द्र तक ५ कुलकर 'हा!' तथा 'मा' शब्दों से दण्डित करते थे। चन्द्राभ से लेकर नाभिराज तक हा! मा, तथा धिक् तीनों शब्दों से दण्डित करते थे तथा भरत जो कि अन्तिम कुलकर नाभिराज के पुत्र थे वे इन तीनों शब्द दण्डों के अतिरिक्त शरीर दण्ड से भी अनुशासन करते थे। इस प्रकार कुलकरों के समय जन हृदय क्रमशः दूषित हो रहे थे।
रवितारालोके भ्यस्त्रयो नृणामपनयन्ति भयमाढ्याः । दीपविनोदनामीदा तिहादिमोहमानः || कथयन्ति तु चत्वारः सुतेक्षणादीतिमपहरत्यन्यः । नामकृति शशधरमभि शिशुकेलिं प्रकुरुतेऽन्यः ॥१८॥ जीवति सुतैः सहान्यो जलतरणं गर्भमलविशुद्धिं च । नालनिकर्तनमपि च त्रयोऽपि परे व्यपदिशन्ति नृणाम् ॥१६॥
अन्वयार्थ- (आद्याः भयः) आदि के तीन (रवि तारालोकेभ्यः) सूर्य चन्द्र और ताराओं के दर्शन से उत्पन्न (भयं) डर (नृणां) उस समय के मनुष्यों का (अपनयन्ति) दूर करते हैं। (अतः) इससे आगे के (चत्वारः) चार कुलकर (दीप विचोदन मर्यादा वृत्ति वाहादिरोह कथयन्ति) रात्रि में प्रकाश हेतु दीपक जलाना, कल्पवृक्षों की सीमा निर्धारित करना, बाड़ लगाना, सवारी करना आदि बताते हैं। (अन्य) अन्य कुलकर (सुतेक्षणात्) पुत्र के देखने से (भीति) भय को (अपहरति) दूर करता है। (शशधरमभि) अभिचन्द्र कुलकर' नामकृतिं पुत्रों का नाम लेकर बुला बुलाकर प्रसन्न होना, (अन्य) उससे और दूसरा कुलकर (चन्द्राभ नामकः) पुत्रों से क्रीड़ा करके प्रसन्न होना । (सुतैः) पुत्रों के साथ जीवित होनापारिवारिक जीवन जीना, (जलतरणं) जल में नौकादि द्वारा, उस पार होना, (गर्भ मल विशुद्धिं) गर्भ के जरा आदि मल की विशुद्धि को (नालनिकर्तनम् अपि) नाल काटने आदि को परे-अन्तिम (त्रयोऽपि) तीन (नृणां) मनुष्यों को (व्यपदिशन्ति) शिक्षा देते हैं, बताते हैं।
श्रुतायतार
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