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________________ सप्तोपधान० पद - ९, संपदाएँ ३, गुरु ५, लघु ५७, सर्वाक्षर ६२, अर्थ - नमस्कार हो उन अरिहन्त भगवन्तोंको ११ जो धर्मकी आदि करनेवाले हैं, और तीर्थकी स्थापना करनेवाले हैं, स्वयं ( अपने आपही ) बोध पानेवाले हैं २। पुरुषों में उत्तम हैं, पुरुषोंम सिंह के समान पराक्रमचाले हैं, पुरुषोंमें उत्तम पुण्डरीक कमलके समान हैं, पुरुषोंमें प्रधान गन्धहस्तीके समान हैं, ( उनको नमस्कार हो ) ३ ॥ द्वितीय वाचना आठ उपवाससे । (२) याचनापाठ "लोगुत्तमणं, लोग नाहीगणं, लोगहिगीणं, लोग पईवाणं, लोग पजोयगण ४। अभयदयौर्ण, चक्खुदयणं, मग्गदयणं, सरणदर्याणं, बोहिदयणं, ५१ धम्मदणं, धम्मदेसणं, धम्मनायगोणं, धम्मसारहीणं, धम्मवर चाउरंत चक्क वंहीणं ६।" पद - १५, संपदाएँ ३, गुरु ११, लघु ८१, सर्वाक्षर ९२ । अर्थ - (जो सर्व भव्य जीवरूप) लोकमें उत्तम हैं, ( आधे पुनलपरावर्त्त कालके अन्दर मोक्षमें जानेवाले धर्मके वीजभूत | सम्यक्त्वको पाये हुए भव्य जीबरूम) लोक के ( योग अप्राप्त सम्यक्त्वादि की प्राप्ति और क्षेम-प्राप्त सम्यक्त्वादि की रक्षा के करनेबाले होनेसे ) नाथ हैं, ( समस्त संसारके जीवरूप) लौकके हित करनेवाले हैं, ( धर्म देशना के योग्य सब्जीजीवरूप ) लोकके दीपकसमान हैं, (विशिष्ट चौदह पूर्वधररूप ) लोकके प्रद्योत ( प्रकाश ) को करनेवाले हैं ४%, अभय देनेवाले हैं, ( ज्ञानरूपी ) चक्षुके देनेवाले 35 उपधानवाचनापाठ अर्थसमेतः
SR No.090452
Book TitleSaptopadhanvidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalsagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages78
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size2 MB
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