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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
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तावद् ग्रन्थवरोऽयमत्र सकलाभीष्टार्थसिद्धिप्रदः । श्री सम्मेदमहीभृतः प्रतिदिनं कण्ठे सतां तिष्ठतात् ।। ८७ ।। अन्वयार्थ यावत् = जब तक स्वर्गाधीश्वरौ स्वर्ग के अधीश्वर, चन्द्रदिवाकरौ = चन्द्रमा और सूर्य, गगनगौ आकाशगामी, (स्तः = हैं), यावत् = जब तक, इयं यह भूमिः = पृथ्वी, विराजिता विद्यमान या सुशोभित (अस्ति = है), तथा = और यावत् अग्नि, मरूत्
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(स्तः
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जब तक, कृशानुः = हवा, हैं), तावत् = तब तक, अत्र = इस जगत में, सक्लाभीष्टसिद्धिप्रणः अभीष्ट सिद्रियों को प्रदान करने वाला, अयं = यह श्रीसम्मेदमहीभृतः श्रीसम्मेदशिखर पर्वत का ग्रन्थवरः = श्रेष्ठ ग्रन्थ, प्रतिदिनं प्रतिदिन, सतां सज्जनों के, कण्ठे - कंठ में तिष्ठतात् स्थित रहे। श्लोकार्थ- जब तक स्वर्ग के अधीश्वर या ज्योतिषी देवों के अधिपति चन्द्रमा और सूर्य आकाश में गमन करने वाले हैं, जब तक यह भूमि विद्यमान है या सुशोभित हो रही है और जब तक अग्नि एवं हवा विद्यमान हैं तब तक इस जगत् में सभी अभीष्ट सिद्धियों को प्रदान करने वाला यह श्री सम्मेदशिखर पर्वत के माहात्म्य का श्रेष्ठ ग्रन्थ प्रतिदिन सज्जनों के कंठ में विद्यमान रहे अर्थात् वे इसे सतत पढते रहें, याद रखें यह कवि की भावना है।
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{ इति श्रीभगवल्लोहाचार्यानुक्रमेण श्रीमहारकजिनेन्द्र भूषणोपदेशात् श्रीमद्दीक्षित ब्रह्म देवदत्तकृते श्रीसम्मेदशिखरमाहात्म्ये तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ- वृतान्तसमन्वितः । }
{ इस प्रकार श्री भगवान् लोहाचार्य के अनुक्रम से श्रीमट्टारकजिनेन्द्रभूषण के उपदेश से श्रीमान् दीक्षित (ब्रह्मदत्त) देवदत्त द्वारा रचित श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य नामक काव्य में तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के वृत्तान्त से संयुक्त समाप्ति की सूचना देने वाला इक्कीसवां अध्याय पूर्ण हुआ । }