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एकविंशतिः विशेष
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उम्मेदयात्रिको गीताभावेन संयुतः । करामलकवत् पश्येत् त्रिलोकीं ज्ञानचक्षुषा ।। ६६ ।। अन्वयार्थ भावेन भाव से संयुतः = संयुक्त, सम्मेदयात्रिकः = सम्मेदशिखर पर्वत की यात्रा करने वाला जीवः = जीव, क्रमात् = क्रमशः, ज्ञानचक्षुषा अपने ज्ञान नेत्र से, हाथ पर रखे आँवले के समान, त्रिलोकीं तीनों लोकों को या तीनों लोक जिसके ज्ञान में हैं ऐसे त्रिलोकी नाथ परमात्मा को पश्येत्
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करामलकवत्
= देखे |
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श्लोकार्थ भावसहित सम्मेदशिखर की यात्रा करने वाला जीव क्रमशः अपने ज्ञान नेत्रों से त्रिलोकी परमात्मा या तीनों लोकों को हाथ पर रखे आँवले के समान देख लेवें ।
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'यहाँ 'नास्त्येिव' यह पद पुनरुक्त कर उसका महत्त्व द्विगुणित करके सूचित किया गया है। जिससे उक्त कथन का निश्चय दृढता से हो ।
अथ सम्मेदशैलस्य वन्दितस्याखिलैर्बुधैः । यथा विधीयते यात्रा वक्ष्येऽहं तत्प्रमाणतः । । ६७ ।।
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अन्वयार्थ अथ = अब अखिलैः सभी, बुधैः - नमस्करणीय, सम्मेदशैलस्य तीर्थवन्दना स्वरूप यात्रा, यथा की जाती है. तत्प्रमाणतः उनके प्रमाणानुसार, अहं = मैं कवि, वक्ष्ये कहता हूँ ।
विद्वानों द्वारा वन्दितस्य सम्मेदशिखर की यात्रा = जिस प्रकार, विधीयते =
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श्लोकार्थ सभी विद्वानों द्वारा जिस प्रकार सम्मेदशिखर पर्वत की यात्रा की जाती है उन विद्वानों के प्रमाण से अब मैं उसे कहता हूँ । यहाँ अब यात्रा करने की विधि का निर्देश किया जा रहा
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शैलयात्रोत्सुको भव्यः निर्लोभः प्रथमं भवेत् । कुर्याद् द्रव्यव्ययं सम्यक् माहात्म्यं श्रुणुयाद् गिरेः ।। ६८ ।। 'अन्वयार्थ शैलयात्रोत्सुकः = सम्मेदशिखर पर्वत की यात्रा करने के लिये उत्सुक, भव्यः = भव्य जीव, प्रथमं पहिले, निर्लोभः = निलोंभी, भवेत् = होवे, गिरेः = पर्वत के, सम्यक् = सच्चे,
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