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________________ एकविंशतिः ५८१ नागनागनिकायुक्तं काष्ठमेकं धनञ्जये । ज्वलन्तं वीक्ष्य तज्ज्ञात्या दग्धं प्राणिद्वयं प्रभुः ।।२८।। अवधिज्ञानतो चैतमुक्त्वा कं चित्तपोधरम् । तत्क्षणात् स्वयमीशानो वैराग्यं प्राप्तवान् महत् ।।२९।। अन्वयार्थ - एकदा = एक दिन, कौमारकाले = कुमार अवस्था में. क्रीडाथ = क्रीडा के लिये, विपिनम् = वन में, गतः = गये. त्रिलोकेश: = तीन लोक के स्वामी पार्श्वनाथ तीर्थकर ने. विशुद्धज्ञानवर्जितं = सम्यग्ज्ञान से रहित, पञ्चाग्नितपसा = पञ्चाग्नितपश्चरण से, तप्तं = तप्त हुये, जिनागमबहिर्भूतं = जिनागम से पृथक अन्य, आसुरं = आतुरि विद्या स्वरूप, तपसि = तप में, स्थितं = स्थित, कमठाख्यं = कमठ नामक, तपस्विनं = एक तपस्वी को. अपश्यत् - देखा । (तत्र = वहाँ), धनजये = अग्नि में, नागनागनिकायुक्त = नाग नागिनी से युक्त, एक = एक. ज्वलन्तं = जलते हये, काष्ठं = काष्ठ को, वीक्ष्य = देखकर, अवधिज्ञानतः = अवधिज्ञान से, तत् = उन, प्राणिद्वयं = सर्प सर्पिणी दोनों प्राणियों को, दग्धं = दग्ध जला हुआ. ज्ञात्वा =: जानकर, एतं = इस, तपोधरं = तपस्वी को, किंचित् = थोड़ा कुछ, उक्त्वा = कहकर, स्वयं - स्वयं ही. ईशानः = समर्थ, प्रभुः = तीर्थकर पार्श्वनाथ. तत्क्षणाात् = उसी क्षण, महत = अत्यधिक, वैराग्यं = वैराग्य को, प्राप्तवान = प्राप्त हुये। श्लोकार्थ - एक दिन कुमार अवस्था में क्रीड़ा के लिये वन को गये तीनों लोकों के स्वामी प्रभु ने सम्यग्ज्ञान शून्य, पंचाग्नितप में संतप्त, जिनागम बाह्य आसुरि विद्या वाले, तप में लीन एक कमठ नामक तपस्वी को देखा। वहाँ अग्नि में नाग नागिनी से युक्त एक जलते हुये काष्ठ को देखकर अवधिज्ञान से उन दोनों प्राणियों को जलता हुआ जानकर तथा इस तपस्वी को थोड़ा कुछ कहकर स्वयं ही समर्थ प्रभु पार्श्व कुमार तरक्षण ही अत्यधिक वैराग्य को प्राप्त हुये। लौकान्तिकास्तदागत्य कौमारावसरे प्रभुम् । विरक्तं संसृतेर्वीक्ष्य तुष्टुयुः बहुधा प्रभुम् ।।३०।।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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