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एकविंशति
जगत् के स्वामी तीर्थकर, तस्यां = उस रानी में. अर्थात
उसके गर्भ से, आविरभूत = उत्पन्न हुये | श्लोकार्थ - गर्भकाल बीत जाने पर पौष कृष्णा ग्यारस के दिन पूर्व दिशा
में सूर्योदय के समान प्रकाशित होते हुये जगत्प्रगु तीर्थकर
ने रानी के गर्भ से जन्म लिया। तदा सौधर्मकल्पेश: सरैः सह मुदान्वितः ।
तत्रागत्य समादाय प्रभुं स्वणा दिमाप्तवान् ।।२०।। अन्वयार्थ · तदा = तभी. सुरैः = देवताओं के, सह = साथ, तत्र = वहाँ,
आगत्य = आकर, मुदान्वितः - प्रसन्नता से भरा, सौधर्मकल्पेश: = सौधर्म स्वर्ग का स्वामी इन्द्र, प्रभुं = तीर्थकर प्रभु को, समादाय = लेकर, स्वर्णानि = सुमेरु पर्वत
को, आप्तवान् = प्राप्त हुआ। श्लोकार्थ . तभी वहाँ आकर देवताओं के साथ प्रसन्नतचित्त सौधर्म इन्द्र
ने प्रभु को ग्रहण किया और सुमेरू पर्वत पर लेकर पहुँच गया । तत्राभिषिच्य विधिवद् वार्मिः क्षीरोदसम्भवैः । भूयो. गन्धोदकेनाथ सम्भूष्य वरभूषणैः ।।२१।। पुनराणसीं प्राप्य देवं भूपाङ्गणे हरिः । मुदा संस्थाप्य सम्पूज्य विधायाद्भुतताण्डवम् ।।२२।। पार्श्वनाथाभिधां तस्य कृत्वा भूपमतेन सः ।
जयध्वनि समुच्चार्य सदेयो दिवमन्वगात् ||२३।। अन्वयार्थ - तत्र = वहाँ सुमेरू स्थित पाण्डुक शिला पर, क्षीरोदसम्भवैः
= क्षीरसागर निकाले गये, वार्भिः = जल से, विधिवद् = विधि के अनुसार, (प्रभु = प्रभु का), अभिषिच्य = अभिषेक करके, अथ - और. गन्धोदक = सुगन्धित जल से, भूयः = फिर, (अभिषिच्य = अभिषेक करके), वरभूषणैः = शुभ अलङ्करणों से, सम्भूष्य = अलङ्कृत करके, पुनः = फिर से, वाराणसी = वाराणसी नगरी को, प्राप्य = प्राप्त करके, भूपाङ्गणे = राजा के आंगन में. देवं = प्रमु को. संस्थाप्य = स्थापित करके, मुदा = हर्ष से, संपूज्य = पूजा करके, अद्भुतताण्डवं = आश्चर्यकारी ताण्डव नृत्य को, विधाय = करके, (च- और). तस्य = उन प्रभु का, पार्श्वनाथाभिधां = पार्श्वनाथ नामकरण, कृत्वा = करके, जयध्वनि = जयध्वनि को, समुच्यार्य =