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एकविंशतिः
५७७ अन्वयार्थ - पूर्वोक्तकाशीविषये = पूर्व वर्णित काशी नामक देश में,
वाराणस्यां = वाराणसी नगरी में, विश्वसेनाभिधः = विश्वसेन नामक, नृपः = राजा, अभूत् = हुआ था. तस्य = उस राजा की, वामाख्या = वामा नामक, वरा = एक शुभ, महिषी =
रानी, (आसीत् = थी)। श्लोकार्थ - पूर्वोक्त काशी देश की वाराणसी नगरी में एक विश्वसेन
नामक राजा हुआ था। उसकी शुभ लक्षणों वाली एक वामा
नामक रानी थी। तया सह महाराजो विश्वसेनो वरं सुखम् ।
अन्वभूत् पूर्वसुकृतप्रभावात्प्रतिवासरम् ।।१४।। अन्वयार्थ - तया = उस रानी के, सह = साथ, महाराजः = महाराज,
विश्वसेनः = विश्वसेन ने, पूर्वसुकृतप्रभावात् = पूर्व संचित पुण्य कर्म के उदय रूप प्रभाव से. प्रतिवासरं = प्रत्येक दिन,
वरं = श्रेष्ठ-शुभंकर, सुखं = सुख को, अन्वभूत् = भोगा। श्लोकार्थ - उस रानी के साथ उन महाराज विश्वसेन ने अपने पूर्वसंचित
पुण्यकर्मों के फल के प्रभाव से. प्रतिदिन शुभकारी सुख को
मोगा। तयोर्देवाधिपादेशात किन्नराधिपतिस्तदा ।
ववर्ष बहुरत्नानि गृहे सुरगृहोपर्म ।।१५।। अन्वयार्थ - तदा = ती, तयोः = उन दोनों राजा-रानी के, सुरगृहोपमे
- देवताओं के घर के समान, गहे = घर में, देवाधिपादेशात = इन्द्र की आज्ञा से, किन्नराधिपतिः = किन्नरों के स्वामी
कुबेर ने, बहुरत्नानि = बहुत रत्नों को, ववर्ष = बरसाया । श्लोकार्थ - राजा और रानी दोनों के ही देवगृहतुल्य घर में इन्द्र की आज्ञा
से कुबेर ने अनेक प्रकार के रत्नों की बरसात की। ततो वैशाखमासेऽथ शुक्लपक्षे नृपप्रिया । द्वितीयायां निशान्ते साऽपश्यत् स्वप्नाश्च षोडश ।।१६।। अन्ययार्थ - च = और, ततः = उसके बाद, अथ = शुभ सूचक अव्यय,
वैशाखमासे = वैशाख माह में, शुक्लपक्षे = शुक्ल पक्ष में, द्वितीयायां = द्वितीया के दिन, निशान्त = रात्रि के अन्तिम