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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
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प्रमुख,
यक्षः
भूतकः = भूतक, अभूत्
प्रकार), प्रभोः = भगवान का अप्रीतिवाक्यं = अप्रीतिकर वाक्य को, श्रुत्वा = सुनकर, असौ = उस, नृपः = राजा श्रेणिक ने, सोत्कण्ठवशतः = अत्यधिक उत्कण्ठा के वशीभूत होने से, सम्मेदाख्यगिरिं प्रति = सम्मेदशिखर नामक पर्वत की ओर, यात्रोद्योगं - यात्रा करने का उद्यम, चकार = किया, पर्वतोपरि : पर्वत के ऊपर, महान् = प्रभावशाली, = यक्ष देवता, नामतः = नाम से, था, सः = वह यक्ष, महाबल: = महान् बलशाली, दशलक्षव्यन्तराणां = दश लाख व्यन्तरों का, भूपतिः = स्वामी, (आसीत् = था ). ( तेन उस यक्ष द्वारा), दुस्तरः = कठिनाई से रोकी जाने योग्य असह्य, श्यामपवनः = काले बादलों को समेटती हुई हवा, चालितः = चलायी गयी, (यतः = जिससे), तिमिराकृतिः = अन्धकारमय आकृति, (सर्वत्र = सब जगह), (अभूत हो गई), तं उस उपसर्ग उपसर्ग को, दृष्ट्वा
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देखकर स राजा = उस राजा ने यात्रां = यात्रा को, |न्यवारयत् = रोक दिया, तस्य = उसकी, राज्ञी = रानी, चेलना = चेलना, आसीत् = थी, सा = उसने, तं प्रियं नृपं = उन प्रिय राजा को, आह कहा, हे राजन! महाराज ! महावीरकेवलज्ञानिनः = केवलज्ञानी भगवान् महावीर के, वचः = वचन को, ( अहं = मैं ), सत्यं = सम्यक् अर्थात् संशयहीन, = अटल, एवं ही, मन्ये = मानती हूं, (इदानीम् अचलम् अभी), ते तुम्हारा, यात्रावसरः यात्रा करने का काल, न = नहीं, हि = ही. ( वर्तते है ) |
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श्लोकार्थ निश्चय ही तुम्हारा अगला जन्म स्थान प्रथम नरक में होगा - इस प्रकार भगवान् की अप्रीतिकर बात सुनकर भी सिद्धक्षेत्र के दर्शन की तीव्रतम उत्कंठा होने के कारण उस राजा श्रेणिक ने सम्मेदशिखर की ओर यात्रा करने का उद्यम चालू कर दिया अर्थात् प्रस्थान किया किन्तु पर्वत पर रहने