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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य फल, पतिमुखात् = पति के मुख से, श्रुत्वा = सुनकर धर्मवत्सला = धर्मानुरागिणी, सती = पतिव्रता, सा = उस रानी ने, आत्मानं = अपने आपको, कृतकृत्यमिव = कृतकृत्य के समान अर्थात् सिद्ध भगवन्तों जैसा सुखी, अमन्यत = मान
लिया। श्लोकार्थ - राजा के मुख से इन सोलह स्वप्नों का फल सुनकर
धर्मानुरागिणी एवं पतिव्रता उस रानी ने अपने आप को
कृतकृत्य के समान सिद्धों जैसा सुखी मान लिया। वर्णनीयं कथं भाग्यं तस्याः देवेन्द्रसेवितः ।
अहमिन्द्रो गर्भगोऽभूद् यस्यास्तीर्थकृदीश्वरः ।।२६।। अन्वयार्थ – देवेन्द्रसेवितः = इन्द्रराज द्वारा सेवा किया जाता हुआ,
अहमिन्द्रः = अहमिन्द्र का जीव. तीर्थकृत = तीर्थकर, ईश्वरः = परमात्मा, यस्याः = जिसके, गर्भगः = गर्भ में स्थित, अभूत = हुआ, तस्याः = उसका, भाग्यं = भाग्य, वर्णनीयं = वर्णन
किये जाने योग्य, कथं = कैसे, (स्यात् = हो)! श्लोकार्थ – देवेन्द्र जिसकी सेवा रक्षा करता है ऐसा वह अहमिन्द्र का
जीव तीर्थङ्कर भगवान् बनकर जिस रानी के गर्भ में स्थित हुआ हो उस रानी के भाग्य का वर्णन कैसे हो अर्थात् वर्णन
नहीं हो सकता है। मार्गे शुक्लप्रतिपदि मूलभे जगदीश्वरम् ।
सा सुतं सुषुवे देवी त्रिबोधपरिभास्वरम् ।।७।। __ अन्वयार्थ - सा = उस, देवी = रानी ने, मार्गे = मार्गशीर्ष माह में,
शुक्लप्रतिपदि = शुक्ला प्रतिपदा के दिन, मूलभे = मूल नक्षत्र में, त्रिबोधपरिभास्वरम् = तीन ज्ञानों से प्रस्फुरित होते-चमकते हुये. जगदीश्वरम् = जगत् के स्वामी, सुतं =
पुत्र को, सुषुवे = उत्पन्न किया। रलोकार्थ – उस रानी ने मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन मूल नक्षत्र में
जगत् के स्वामी तथा मति-श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से भास्वरित-सुशोभित पुत्र को उत्पन्न किया।