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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
धारण करके चतुर्विध संघ के साथ सम्मेदशिखर की यात्रा के लिये प्रस्थान किया । द्वात्रिंशल्लक्षभव्यैश्च सहितो दुन्दुभिः स्थनम् । शृण्वन् राजा महोत्साहः सम्मेदगिरिमाययौ । १७४ ।। अन्वयार्थ – द्वात्रिंशल्लक्षभव्यैः = बत्तीस लाख भव्य जीवों के, सहित: साथ चलने वाला, च = और, दुन्दुभिः = नगाड़ों से, (निस्सृतं निकली), स्वनम् = ध्वनि को, शृण्वन् = सुनता हुआ. महोत्साहः = महान् उत्साह धारण करने वाला, (सः = वह), राजा राजा, सम्मेदगिरिं = सम्मेदशिखर पर्वत पर आययौ पहुँच गया।
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श्लोकार्थ - बत्तीस लाख भव्य जीवों के संघ को साथ लेकर तथा नगाड़ों की ध्वनि को सुनता हुआ महान् उत्साह युक्त वह राजा सम्मेदशिखर पर पहुँच गया।
तत्राविचलकूटं तमभिवन्द्य समर्च्य च |
अष्टधा पूजया सिद्धान् प्रणम्य च मुहुर्मुहुः । ७५ ।। समर्प्य राज्यं पुत्राय घातिकर्मक्षयान्नृपः । सम्मेदयात्रापुण्येन मुक्तिस्थानमवाप सः ।।७६३१
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अन्वयार्थ - तत्र = सम्मेदशिखर पर तम् = उस अविचलकूटं = अविचलकूट की, अभिवन्द्य = बहुमान पूर्वक चन्दना करके, च = और, समर्च्य - सम्यक् अर्चना करके, अष्टधापूजया अष्टविधद्रव्यों से की गयी पूजा से, मुहुः मुहुः बारम्बार, सिद्धान् = सिद्धभगवन्तों को प्रणम्य प्रणाम करके, च = = राज्य, समर्प्य और, पुत्राय = पुत्र के लिये राज्यं सौंपकर सम्मेदयात्रापुण्येन सम्मेदशिखर की यात्रा स्वरूप तीर्थवन्दना के पुण्य से, सः उस नृपः = राजा ने, घातिकर्मक्षयात् = घातिकर्मों का क्षय हो जाने से, मुक्तिस्थानम् = मुक्तिस्थान अर्थात् सिद्धपद को अवाप प्राप्त किया ।
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श्लोकार्थ - सम्मेदशिखर पर अत्यधिक बहुमान पूर्वक उस अविचलकूट
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