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तृतीया
श्लोकार्थ - आहार लेने के पश्चात् मुनिराज पुनः उस अत्युत्तम तपोवन
में आ गये इस प्रकार बहत्तर वर्ष तक अल्पज्ञानी होकर मुनिराज तपश्चरण करते हुये, षष्टोपवास की प्रतिज्ञा करके शिलातल पर बैठे तब कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्थी
के दिन दोपहर बाद प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। तदा समयसारः च स्वयं शक्रादिनिर्मितः ।
यथासंख्यं गणेन्द्राद्यास्तिर्यगन्ताः प्रहर्षिताः ।।५।। अन्वयार्थ · तदा च = और तभी. स्वयं = स्वयं, शक्रादिनिर्मितः = इन्द्रादि
द्वारा रचित, समवसारः = समवसरण, (तत्र = यहाँ, प्राप्तः = प्राप्त हुआ). (यत्र =: जहाँ), यथासंख्यं = क्रमानुसार अपने अपने कार में, गणन्द्राधाः = गणधर आदि, तिर्यगन्ताः = अन्तिम कोठे वाले तिर्यञ्च, सभी जीव, प्रहर्षिताः = प्रसन्न हो
गये। श्लोकार्थ - और तभी इन्द्रादि द्वारा रचा गया समवसरण वहाँ आ गया
जिसमें अपने-अपने कोठों में बैठे हुये क्रमानुसार गणधर को
आदि लेकर तिर्यञ्च पर्यन्त सभी जीव आनन्द से भर गये। स्वस्वकोष्ठे विराजन्ते प्रभुस्तवनतत्पराः। सहससूर्यसदृशस्तत्र सिंहासने शुभे ।।५२।। विभूतिसहितः सम्यग् व्यराजत तपोनिधिः ।
गणेन्द्राद्यैश्च सम्पृष्टो दिव्यध्वनिमुदाहरत् ।।३।। अन्वयार्थ - (गणधरादितिर्यञ्चपर्यन्ताः = गणधरादि तिर्यञ्चपर्यन्त सभी
जीव), स्व-स्वकोष्ठे = अपने अपने कोठों में, प्रभुस्तवनतत्पराः = भरावान की स्तुति वन्दना आदि में जागरूक होकर, विराजन्ते = सुशोभित होते हैं । तत्र = वहीं, शुभे = अत्यंत शुभ. सिंहासने = सिंहासन पीठ पर सहससूर्यसदृशः = हजारों सूर्य के समान, विभूतिसहितः = केवलज्ञानादि अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी से युक्त, तपोनिधिः = तप से निधि पाने वाले भगवान्, सम्यग् = अच्छी तरह, व्यराजत = सुशोभित थे, च