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सम्मइसुतं
विशेष-ग्रन्थकार श्रोत्रदर्शन, प्राणदर्शन आदि नहीं मानते हैं; केवल चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन ही उन्हें मान्य हैं। अचक्षुदर्शन से यहाँ मनोदर्शन अर्थ लिया गया है। क्योंकि चक्षु इन्द्रिय और मन ये दोनों अप्राप्यकारी माने गए हैं। अन्य चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी नहीं हैं। आर्य वीरसेन स्वामी ने चक्षु और मन को अप्राप्यकारी पाना है तथा अन्य चार इन्द्रियों को प्राप्यकारी एवं अप्राप्यकारी दोनों रूपों में स्वीकार किया है।
पाणं अप्पुढे अवसिए य अत्यम्मि दंसणं होइ। मोत्तूण लिंगओ जं अणागयाईयविसएसु ॥25॥ ज्ञानमस्पृप्टे अविषये चार्थे दर्शनं भवति।
मुक्त्वा लिंगतो यमानागताऽतीतविषयेषु ॥25॥ शब्दार्थ-अपुठे-अस्पृष्ट में; अविसए-अविषय (भूत पदार्थों) में; य-और; अत्यम्मि-पदार्थ में; दंसणं-दर्शन; होइ-होता (है); अणागयाईयविसएस-अनागत (भविष्य) आदि (के) विषयों (पदार्थों) में; लिंगओ-हेतु से (जो ज्ञान होता है); जं-जिसे (उसे); मोत्तूण-छोड़ कर (दिया जाता है)।
आगम में चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन क्यों ? : भावार्थ-आगम ग्रन्थों में जो चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन शब्द मिलते हैं, उनका अभिप्राय यह है कि वे मतिज्ञान रूप हैं। चक्षु इन्द्रिय किसी भी विषयभूत पदार्थ से सन्निकष्ट नहीं होती अर्थात् आँख किसी भी बस्तु से जाकर भिड़ती नहीं है, फिर भी, दूरवर्ती चन्द्र, सूर्य आदि पदार्थों का बोध कराती है। यह बोध ही चक्षुदर्शन है। इसी प्रकार किसी भी इन्द्रिय के विषयभूत हुए बिना मानसिक चिन्तन से सूक्ष्म परमाणु आदि का जो ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन कहा गया है। ये दोनों ही अपने साध्य के अविनाभावी हेतु से उत्पन्न होने के कारण अनुमान के अन्तर्गत ग्रहण नहीं किए गए हैं। विशेष-जिस प्रकार अप्राप्यकारी पदार्थ विषयक सम्पूर्ण ज्ञान चक्षुदर्शन नहीं है, उसी प्रकार इन्द्रिय ग्राह्य सम्पूर्ण मानसिक ज्ञान अचक्षुदर्शन नहीं है; जैसा कि अनुमान है। अतएव गाथाकार ने अनुमान को छोड़ दिया है।
मणपज्जवणाणं दंसण त्ति' तेणेह होइ ण य जत्तं।
भण्णइ णाणं गोइंदियम्मि' ण घडादओ जम्हा ॥26॥ 1. ॐ गणागवाईयां बसवेस। 2. ब" दंसग हि। 3. तेव। 1. बनोउंदिअंतन