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सम्मइसुतं
केवलदर्शन, केवलज्ञान कहने का तात्पर्यार्थ :
भावार्थ - आगम में सामान्य को ग्रहण करने वाले दर्शन के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इस प्रकार के चार भेद किये गए हैं। यद्यपि केवलदर्शन और केवलज्ञान में भेद नहीं है, किन्तु दर्शन के भेदों में केवलदर्शन पाठ आता है। दर्शन का ग्राह्य सामान्य धर्म है और ज्ञान का ग्राह्य विशेष धर्म है। इसलिए यह भेद ग्राह्य पदार्थ में है। उनको ग्रहण करने वाले उपयोग में दर्शन और ज्ञान का भेद रूप व्यवहार किया गया है। परन्तु यहाँ पर उपयोग के भेद की अपेक्षा से केवलदर्शन, केवलज्ञान आदि व्यवहार नहीं किया गया है; क्योंकि मूल में उपयोग तो एक ही है। कहा भी है
दंसणमबि चक्खुजुदं अचक्खुजुदमवि य ओहिणा सहियं । अणिघणमणंतवित्रयं केवलियं चावि पण्णत्तं । । - पंचास्तिकाय, गा. 42
दर्शन के भी चार भेद हैं-चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन, अविधदर्शन और अनन्तदर्शन जिसका विषय ऐसा अविनाशी केवलदर्शन है।
तथा - किंचिदित्यवभास्यत्र वस्तुमात्रमपोद्धतं । तद्ग्राहि दर्शनं ज्ञेयमवग्रहनिबन्धनम् ।।
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- तत्त्वार्थश्लोकयार्तिक, 1, 12 "कुछ है" इस प्रकार जहाँ प्रातिभास होता है तथा जो सामान्य वस्तु मात्र को ग्रहण करता है, केवल महासत्ता का आलोचन करने वाला वह दर्शन है। इस प्रकार दर्शन सामान्य को और ज्ञान विशेष को ग्रहण करता है
दंसणमोग्गहमेतं घडो ति णिव्वण्णणा' हवइ गाणं ! जह एत्थ केवलाण वि विसेसणं एत्तियं चैव ॥21॥ दर्शनमवग्रहमात्रं घटइति निर्वर्णना भवति ज्ञानम् । यथाsत्र केवलयोरपि विशेषणमेतावत् चैव ॥21॥
शब्दार्थ –जह – जैसे ऑग्गहमेतं - अवग्रह ( विकल्प ज्ञान ) मात्र दंसणं-दर्शन ( है ); घडो - घड़ा त्ति - यह ( है ); णिवण्णणा-देखने से णाण - (मति) ज्ञान; हवइ - होता (है); (तह-वैसे ) एत्थ -- यहाँ केवलणाण - केवलज्ञान; (और केवलदर्शन में), वि-भी; एत्तियं - इतनी (ही); विसेसणं- विशेषता: वेब और भी ( है ) ।
केवलदर्शन और केवलज्ञान में अन्तर क्या ? :
भावार्थ - केवलदर्शन और केवलज्ञान में अभेद मानता हुआ भी जैन मतावलम्बी यह
1. व' घटो त्ति नियत्तणा ।
2.
व केला विसेसणं ।