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प्रस्तावना
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प्रयोग किया, जिनसे बौद्धों का भलीभांति खण्डन हो सके और अपनी मान्तया की स्थापना हो । अतएव यह भी निश्चित है कि 'न्यायावतार' के कर्ता आचार्य पात्रकेसरी, धर्मकीर्ति और कुमारिल भट्ट के पश्चात् उत्पन्न हुए थे। इतना ही नहीं, 'न्यायावतार' में प्रयुक्त वौद्धों की पारिभाषिक शब्दावली से भी यही प्रमाणित होता है कि 'न्यायावतार' की रचना 'न्यायबिन्दु' से लगभग एक शताब्दी पश्चात् हुई थी।
यद्यपि द्वात्रिंशिकाओं के कुछ पद्यों (5.81, 21. 31 ) में सिद्धसेन नाम का उल्लेख किया गया है, किन्तु यह कहना कठिन है कि यह वही सिद्धसेन हैं जिन्होंने 'सन्मतिसूत्र' की रचना की थी। पं. मुख्तारजी ने ठीक ही विचार किया है कि इक्कीसवीं द्वात्रिंशिका के अन्त में और पाँचवीं द्वात्रिंशिका के अतिरिक्त किसी भी द्वात्रिंशिका में सिद्धसेन के नाम का उल्लेख नहीं मिलता है। यह सम्भव है कि ये दोनों द्वात्रिंशिकाएँ अपने स्वरूप में एक न होने से किसी अन्य नामधारी सिद्धसेन की रचना हों या सिद्धसेनों की कृति हों। क्योंकि यह निश्चित है कि द्वात्रिंशिकाओं में एकरूपता नहीं है। फिर, द्वात्रिंशिका का अर्थ बत्तीसी है। इसलिए प्रत्येक द्वात्रिंशिका में 32 पद्य ही होने चाहिए थे, किन्तु किसी द्वात्रिंशिका में पद्य अधिक हैं, तो किसी में कम हैं। दसवीं द्वात्रिंशिका में दो पद्य अधिक हैं और इक्कीसवीं में एक पद्य अधिक है, किन्तु आठवीं में छह, ग्यारहवीं में चार और पन्द्रहवीं में एक पद्य कम है। यह घट-बढ़ मुद्रित हो नहीं, हस्तलिखित प्रतियों में भी पाई जाती है।" अतः इसकी प्रामाणिकता के विषय में सन्देह है। डॉ. उपाध्येजी ने यह समीक्षण किया है कि प्रथम पाँच द्वात्रिंशिकाएँ आचार्य समन्तभद्र के 'स्वयम्भूस्तोत्र' से न केवल विचारों में वरन् अभिव्यक्ति में भी समानता रखती हैं। बत्तीस द्वात्रिंशिकाओं में से वर्तमान में केवल इक्कीस द्वात्रिंशिकाएँ ही उपलब्ध हैं। पं. सुखलालजी भी यह मानले हैं कि इन सभी रचनाओं में क्या विषय-वस्तु और क्या भाषा सब में भिन्नता है। केवल 'सन्मतिसूत्र' को प्रथम गाथा में 'सिद्ध' शब्द से आ. सिद्धसेन का संकेत किया गया है, किन्तु उक्त दो द्वात्रिंशिकाओं को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी सिद्धसेन नाम का उल्लेख नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर विद्वान् अभयदेवसूरि ने श्री सिद्धसेन के केवल 'सन्मतिसूत्र' का उल्लेख किया है। 'प्रभावकचरित' में यह वर्णन किया गया है कि मूल में द्वात्रिंशिकाएँ तीस थीं। उनमें 'न्यायावतार' और 'वीरस्तुति' को सम्मिलित करने पर बत्तीस संख्या हो गई। वस्तुतः इस प्रकार की किंवदन्तियों पर प्रत्यय नहीं किया जा सकता और न इनके आधार पर कोई निर्णय लिया जा सकता है। हाँ, इतना अवश्य है कि जो द्वात्रिंशिकाएँ 'सन्मतिसूत्र' के
1. मुख्तार, जुगलकिशोर पुरातन जैनवाक्य सूची, प्रथम विभाग, दिल्ली, 1950, पृ. 129 ५. वहीं, पृ. 129
3. उपाध्ये, ए. एन. सिद्धसेना न्यायावतार एण्ड अदर वर्स, बम्बई 1971. पृ. 23
4.
पं. सुखलाल संघवो और वरदास दोशी सन्मतितर्क की अंग्रेजी प्रस्ताघना, पृ. 43
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