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सम्म सुतं
केवली के ज्ञान दर्शन में काल भेद नहीं :
भावार्थ - जिस प्रकार अवरोधक जलधरों के हटते ही दिनकर का प्रताप एवं प्रकाश एक साथ जाता है, प्रकार वर्षों के आवरण का असर होते ही केवलज्ञान और केवलदर्शन एक साथ उत्पन्न हो जाते हैं। क्योंकि ज्ञान, दर्शन के आवरण के क्षय हो जाने पर कोई ऐसा कारण नहीं है, जिससे वे विद्यमान रह सकें ।
भण्णइ खीणावरणे जह' मइणाणं जिणे ण संभवइ । तह खीणावरणिज्जे विसेसओ दंसणं णत्थि ॥6॥
भण्यते क्षीणावरणे यथा मतिज्ञानं जिने न सम्भवति । तथा क्षीणावरणीये विशेषतो दर्शनं नास्ति ||6||
शब्दार्थ-जह - जिस प्रकार: खीणावरणे क्षीण आवरण (वाले जिन) में जिणे- जिन (भगवान्) में; मइणाणं- मतिज्ञान ण-नहीं; संभवइ- सम्भव (है); तह - उसी प्रकार खीणावरणिज्जे- क्षीण आवरण (वाले जिन) में विसेसओ- विशेष रूप से (भिन्न काल में); दंसणं-दर्शन णत्थि नहीं है।
और
भावार्थ - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँचों एक ही ज्ञान के भेद हैं। अल्पज्ञानी (छद्मस्थ) के इन में से केवलज्ञान को छोड़ कर चार ज्ञान तक हो सकते हैं, किन्तु केवलज्ञानी के केवल एक केवलज्ञान ही होता
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है। इसलिए उनके मतिज्ञान नहीं होता। जिस प्रकार से केवली के मतिज्ञान नहीं होता, वैसे ही भिन्न-काल में केवलदर्शन भी सम्भव नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि केवली के ज्ञान, दर्शन एक साथ होते हैं; क्योंकि वह क्षायिक है-कर्म के क्षय होने पर उत्पन्न होता है।
सुत्तम्मि चेव साईअपज्जवसिय" ति केवलं वृत्तं । सुत्तासायणभीरुहि तं च दट्ठव्वयं होइ ॥ 7 ॥
सूत्रे चैव साद्यपर्यवसितमिति केवलमुक्तम् । सूत्राऽशातनाभीरुभिः तच्च द्रष्टव्यकं भवति ॥7॥
1.
का" जई (ह) ।
2.
" अवज्जबसिअं ।
९.
ख" केवलं भांअं ।
4. व पि दव्यट्रियं ।