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पडुच्च-अपेक्षा से; पज्जवट्टियो-पर्यायार्थिक (भी); होइ-होता है; उ-किन्तु; णाणे-ज्ञान। (के समय) में; विवरीयं-विपरीत (भासित होता है)।
दर्शन तथा ज्ञान-काल में भेद : भावार्थ-दर्शन-काल में जीव द्रव्यार्थिक नय का विषय होने से सामान्य रूप से | गृहीत होने पर भी औपमिक आदि भावों की अपेक्षा विशेष आकारवान रहने के || कारण उसमें पर्यायार्थिक नय की भी विशेषता रहती है। कहने का अभिप्राय यह है । कि जब आत्मा सामान्य को ग्रहण करता है, तब विशेष का परित्याग नहीं करता। इसी प्रकार ज्ञान-काल में विशेष आकार को ग्रहण करने पर भी सामान्य का परित्याग नहीं करता। यह नियम है कि सामान्य के बिना विशेष नहीं रहता है। अतएव वस्तु । जब सामान्य रूप से प्रतिभासित होती है, तब उसका विशेष रूप लुप्त नहीं होता। सामान्य और विशेष दोनों सदा काल बने रहते हैं, भले ही एक समय में उनमें से । एक रूप भासित हो।
मणपज्जवणाणंतो गाणस्स य दरिसणस्सय विसेसो। केवलणाणं पुण दंसणं ति णाणं ति य समाण* ॥७॥
मनःपर्यवज्ञानमन्तं ज्ञानस्य च दर्शनस्य च विशेषः ।
केवलज्ञानं पुनदर्शनमिति ज्ञानमिति च समानं ॥3॥ शब्दार्थ-णाणस्स-ज्ञान की: य-और दसणस्स-दर्शन की; य-और; (भिन्नकालता विषयक); बिसेसो-विशेष (भेद); मणपज्जवणाणतो-मनःपर्ययज्ञान पर्यन्त (हे); पुण-पुनः (परन्तु); केवलणाणं-केवलज्ञान (में); दंसणं-दर्शन; ति--यह; णाणं-ज्ञान; ति-यह; य-और; समाण-समान (है)
केवलज्ञान में ज्ञान, दर्शन का काल मिन्न नहीं : भावार्थ-ज्ञान और दर्शन के समय की भिन्नता मनःपर्ययज्ञान तक होती है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में दर्शन पूर्वक ज्ञान होता है, पहले दर्शन होता है और उसके पश्चात् ज्ञान होता है। किन्तु केवलज्ञान या पूर्णज्ञान होने पर दर्शन और ज्ञान में क्रम नहीं होता। केवलज्ञान की अवस्था में ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं। क्योंकि दर्शन और ज्ञान का कम छद्मस्थों (अल्पज्ञानियों) में पाया जाता है। केवलज्ञान में ज्ञान तथा दर्शन के उपयोग-काल में भिन्नता नहीं
1. बदसणस्स। १. बलि नाणं निअसमाणे: