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सम्मइसुतं अस्थि ति णिब्बियप्पं पुरिसं जो भणइ पुरिसकालम्मि। सो बालाइवियप्पं' ण लहइ तुल्लं व पावेज्जा ॥33॥
अस्तीति निर्विकल्पं पुरुष यो भणिति पुरुषकाले। स बालादिविकल्पं न लभते तल्यमेव प्राप्नोति ॥33||
शब्दार्थ जोन्जो; पुरिसं-पुरुष को; पुरिसकालम्मि-पुरुषकाल (मनुष्यदशा) में; अत्यि-अस्ति (अस्ति रूप से है); तिन्यह (मानता है सो); गिब्धियप्पं-निर्विकल्प (है); सो-यह; बालाइवियप्पं-बाल (युवा आदि भेदों) आदि विकल्पों को; ण-नहीं लहद-पाता (मानता है); तुल्लं-बराबर (दोनों को समान); वही; पावज्जा-पाता है (मानता है)।
व्यंजन पर्याय एक ही नहीं : भावार्थ-जो वक्ता पुरुष को पुरुष दशा में केवल पुरुष ही मानता है, उसकी अन्य बालक, युवक, वृद्ध आदि अवस्थाओं को नहीं मानता-उसका यह अभेद तथा निर्विकल्प रूप कथन है। केवल इसे ही मानने पर मनुष्य की विभिन्न पर्यायों (दशाओं) का लोप मानना पड़ेगा। किन्तु प्रत्येक प्राणी में विभिन्न दशाएँ लक्षित होती हैं। इसलिये व्यंजन पर्याय को सर्वथा एक नहीं माना जा सकता है।
वंजणपज्जायस्स उ पुरिसो पुरिसो त्ति णिच्चमवियप्यो। बालाइवियप्प' पुण पासइ से अत्थपन्जाओ ॥34॥
व्यंजनपर्यायस्य तु पुरुषः पुरुष इति नित्यमविकल्पः ।
बालादिविकल्पं पुनः पश्यति सोऽर्थपर्यायः ॥34|| शब्दार्थ-वंजणपज्जायस्स-व्यंजनपर्याय का (अनुगमन करने वाले को); उ-तो; पुरिसो-पुरुष पुरिसो-पुरुष; ति-यह (ऐसी); णिच्चमवियप्पो-नित्य निर्विकल्प (भेदहीन प्रतीति होती है); पुण--फिर; बालाइवियप्पं-बाल (युवा आदि भेदों) आदि विकल्पों को पासइ-देखा जाता है); से-बह; अत्यपम्जाओ-अर्थपर्याय हि)।
एक द्रव्य में दोनों पर्यायें (अवस्थायें) : भावार्थ-जब चित का झुकाव व्यंजन पर्याय की ओर होता है, तब पुरुष निर्विकल्प
1. द विगर्ष। 2. ब" तुल्लं बयायिजी। 3. अयियप्पं