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सम्मसुतं
णिययवयणिज्जसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा' । ते पुण' ण दिवसमयो' विभयइ सच्चे व' अलिए वा ॥ 28 ||
निजकवचनीयसत्याः समयः परविगलने भो स पुन र्न दृष्टसमयो विभजते सत्ये वा अलीके वा ॥28॥
शब्दार्थ- सव्वणया- सभी नयः णियय - अपने (अपने ); वयणिज्ज - वक्तव्य (में); सच्चा - सच्चे ( हैं और); परवियालणे - दूसरे ( के वक्तव्य का) निराकरण (करने में): मोहा - व्यर्थ ( हैं ); दिवसमयो- सिद्धान्त (का) ज्ञाता पुण-फिर ते-उन; (नयाँ का) : सच्चे - सत्य में ( यह सच्चा है); व अथवा अलिए झूठ में (यह झूठा है); (ऐसा ) ण - नहीं: विभयइ - विभाग करता ( है ) |
अपनी मर्यादा में सभी नय सच्चे
भावार्थ- सभी नय जब अपनी-अपनी मर्यादा में रह कर अपने-अपने विषय का कथन करते हैं, तब सभी सत्य होते हैं। किन्तु जब अपनी मर्यादा को लाँघ कर दूसरे नय के वक्तव्य का निराकरण करने में प्रवृत्त हो जाते हैं, तब वे ही असत्य माने जाते हैं। इसलिये अनेकान्त सिद्धान्त का जानकार कभी यह विभाग नहीं करता कि 'यही सत्य है या यही असत्य है।" अनेकान्तवादी कार्य को कर्योचेत् ही सत् या असत् कहता है।
दव्वट्ठियवत्तव्वं सव्वं सव्वेण णिच्चमवियप्पं । आरद्धो य विभागो पज्जववत्तव्यमग्गो य ॥ 29 ॥
द्रव्यार्थिक वक्तव्यं सर्वं सर्वेण नित्यमविकल्पम् । आरब्धश्च विभागो पर्यववक्तव्यमार्गश्च ॥29॥
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शब्दार्थ - सव्वं - सबः सव्वेण - सब तरह से णिच्चमवियम्पं - नित्य (और) अविकल्प (भेदरहित); दवडियवत्तव्यं - द्रव्यार्थिक (नय का ) वक्तव्य ( है ) : य-और विभागो-भेद (क); आरद्धो- आरम्भ (होते ही): पज्जवयत्तव्यमग्गो - पर्याय (आर्थिक नय के) वक्तव्य (का) मार्ग ( बन जाता ) है ।
1. ब दोसा ।
है,
अप गुण।
3.
4.
5.
पुण निर्दिग्सिमद समय ।
स" य ।
ब° सध्वं रास्त्रेण ।