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सम्मइसुतं
भी बिखरी हुई अवस्था में "रत्नावली' नहीं कहलाते। मणि या रत्नों के दाने धागे में पिरोये जा कर समन्वित स्थिति में ही हार कहलाते हैं। जिस प्रकार रत्नादि अलग-अलग अवस्था में स्वतन्त्र रूप से 'हार' नहीं कहे जाते, उसी प्रकार निरपेक्ष अवस्था में ये नय सुनयों के द्वारा साध्य अर्थक्रिया करने में सर्वथा असमर्थ रहते हैं। किन्तु रलों की भाँति समन्वित होने पर ये 'दुर्नय' नाम का त्याग कर 'सुनय' नाम को प्राप्त होते हैं।
तह निसानामनुमिनिधि दिनो पक्वणिरवक्खा। सम्पदसणसई सव्ये वि णया ण पावेंति' ॥23॥
तथा निजकवाद-सविनिश्चता अप्यन्योन्यपक्षनिरपेक्षाः। सम्यग्दर्शनशब्द सर्वेऽपि नया ने प्राप्नुवन्ति ॥23॥
शब्दार्थ-तह-उसी प्रकार; णिययवायसुविणिच्छिया-अपने (अपने) वाद (पक्ष में) सुनिश्चित (होने पर); वि भी; अण्णोणपक्खणिरवेक्खा-एक-दूसरे (के) पक्ष (के साथ) निरपेक्ष (होने से); सब्वे-सब; वि-ही; पया-नय सम्मदंसणसई-सम्यक्दर्शन शब्द को; ण-नहीं; पार्वेति-पाते हैं।
सापेस नय : सुनय : मावार्थ-जिस प्रकार धागे में पिरोये हुए मणि के दाने ही हार कहे जाते हैं, उसी प्रकार अपने-अपने पक्ष में सुनिश्चित होने पर ही सभी सापेक्ष नय सम्यग्दर्शन या सुनय नाम को प्राप्त करते हैं। निरपेक्ष नय सुनय नहीं कहे जाते हैं। क्योंकि निरपेक्ष अवस्था में ये नय सम्यक् रूप से कार्यकारी नहीं होते।
जह पुण ते चेव मणी जहागुणविसेसभागपडिबद्धा। रयणावलि ति भण्णइ जहति' पाडिक्कसण्णाओ ॥24॥
यथा पुनस्ते चैव मणयों यथागुणविशेषभागप्रतिबद्धाः । रत्नावलीति मण्यते जहाति प्रत्येकसंज्ञाः ।।24||
शब्दार्थ-जह-जैसे; पुण-फिर; ते-वे; चेव-ही; मणी-मणियाँ; जहागुणविसेसभाग
1. ब" पार्वात। ५. स जागुणायसेलभासपडिजद्धा। ३. बजाह तं।