________________
सम्मसुतं
परन्तु उपशान्त कषाय तथा क्षीणकषाय (ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में) की अवस्था में कर्मबन्ध की स्थिति का कोई कारण विद्यमान नहीं रहता।
विशेष -- कर्मबन्ध चार प्रकार का कहा गया है: - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इनमें से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध मन, वचन, शरीर के योग (परिस्पन्द, हलन चलन) से होते हैं और स्थितिबन्ध एवं अनुभागबन्ध कषाय (क्रोध, अहंकार, माया, लोभ) से होते हैं। आत्मा को सर्वथा शुद्ध, बुद्ध, नित्य व अपरिणामी मानने वाले उसे विकारयुक्त कैसे मान सकते हैं क्योंकि वे विकार का कारण निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध नहीं मानते हैं। इसी प्रकार क्षणिकवादियों के पक्ष में आत्मा में स्थिरता नहीं होने के कारण कर्मबन्ध की स्थिति नहीं बन सकती है।
62
बंधम्मि अपूरंते संसारभओघदंसणं' मोज्झं । बंधे व विणा मोक्खसुहपत्थणा णत्थि मोक्खो य' ||20||
बन्धेपूर्यन्ति संसारभयौघदर्शनं मोघम् । बन्धमेव विना मोक्षसुखप्रार्थना नास्ति मोक्षश्च ॥20॥
शब्दार्थ - बंधम्म-वन्ध (की) में अपूरंते- पूर्ति हुए (बिना); संसारभओघदंसणं-संसार (में) भय-समूह (विविधता का) दर्शन मोज्झं व्यर्थ (है); बंधं बन्ध (के); व-हीं: विष्णा - बिना मोक्खसुरूपत्थणा - मोक्षसुख (की) प्रार्थना (अभिलाषा): य-और; मोक्खो - मोक्ष णत्थि नहीं ( है ) |
बन्ध के बिना मोक्ष भी नहीं :
भावार्थ - यदि जीव के साथ कर्म नहीं बँधते हैं, तो कर्म के कारण उत्पन्न होने वाले संसार के दिल भयों को दिखाना व्यर्थ है। कर्मों के बिना बँधे उनकी मुक्ति नहीं होती। इसलिए बन्ध के बिना मोक्ष के सुख की अभिलाषा और मोक्ष दोनों ही नहीं हो सकते। अतएव जीव स्वयं कर्मों के साथ बँधता है और स्वयं पुरुषार्थ करके कर्मों से छूटता है। "जीव कर्मों के साथ बंधता है" - यह मान लेने पर "स्वाभाविक रूप से मुक्ति होती है" कर्म-क्लेश से छुटकारा होता है- यह स्थिति भी सिद्ध हो जाती
I
तम्हा सव्वे वि या मिच्छादिट्ठी' सपक्खपडिबद्धा । अण्णोष्णणिस्सिया उण हवंति सम्मत्तसमादा ॥21॥
1. भजोहदंसणं संसारभ-ओवदंसणं ।
2.
बस' 'य' के स्थान पर ' पाठ है।
3.
ब" मिच्छाट्ठी ।