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________________ संबीह पंचासिया मंत्र यंत्र करि तंत्र, काल मिटै नहीं क्यों ही ॥ २१ ॥ नरक अधिक दुःख भूरि, जो तूं जीव संहारे । तिन दुखन नहिं पार, यातें पाप निरवारे ॥ २२ ॥ चेतन गर्भ मंझारि, नरक अधिक दुःख पायो । बालपणा को खेद, सब जन परगट गायो ||२३|| छिन में धन का सोच, छिन में बिरह सतावे । छिन में इष्टवियोग, तरुणक बल सुख पावे ||२४|| (ढाल) जरा पर्णे दुःख जे सह्या मन भाई रे, सो क्यूं भूल्यो तोहि । चैत मन भाई रे, जे कुविषयन स्यों लग्यो मन भाई रे, आतम हित नहीं होय चैत मन भाई रे ||२५|| झूठ पाप करि उपज्यो (मन) गर्भ वस्यो बसि पाय (चेत.) । सात धात लह पाप तैं (मन) अजहूं पाप रति आय (चेत.) ॥ २६ ॥ नहीं जरा गढ़ आये हैं (मन.) कहां गयी जम यक्ष ( चेत. ) । ज्यों न चित्त तूं हरयो ( मन. ) एह सब परिग्रह त्याग ( चेत. ) ||२७|| टुक सुख को भवदधि परयो, पाप लहरि दुःख देय । पकरे धरम जिहाज जो, सुख सों पार करेय || २८॥ ठीक रहे धन सासती, होय न रोग न काल । जब लग धरम न छांडि है, कोटि कटै अघ जाल ||२१|| डरपत जो परलोक तैं, चाहत शिवसुख सार । क्रोध लोभ विषय तजो धर्म कथित जिनधार ||३०|| ढील न कर आरंभ तजो आरम्भ में जीवघात । जीवघात तें अघ बढ़ें, अघ तें नरक निपात ॥ ३१ ॥ नरक आदि तिहुं लोक में, ज्यों पर भव दुःख रासि । सो सब पूरब पाप हैं, जीव सह बहु भास ॥ ३२ ॥ 1 " 72
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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