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________________ Kotoसंद्यौह पंचासिया - नहीं होता, संयम की ओर उसकी लगम रहती है , मोक्ष जाने के लिये उसके मन में छटपटाहट रहती है और निरन्तर अपनी निन्दा और गर्दा करता हुआ वह जीव संवेग भावों से युक्त हो जाता है। इन समस्त कारणों से उस जीव का मज आराधना में दृढ होता है। संसार में व्यर्थ क्या है ? किं धम्मे दयरहिए संजमरहियेण किं किय तवेण। किं धणरहिये भवणे किं विहवे वापसीणे ४६।। अन्वयार्थ :(दयरहिए) दयारहित (धम्मे) धर्म से (किं) क्या ? (संजमरहियेण) संयमरहित (किं किय तवेण) ताप करने से (किं) क्या ? (ला) (धणरहिये) धनरहित (भवणे) भवन से (किं ?) क्या (लाभ) (दाणहीणेण) द्वानहीन (विहवे) वैभव से (किं ?) क्या ? (लाभ है।) संस्कृत टीका :-- शिष्य ! यरिमन् धर्मे दया नास्ति तेन धर्मेण किं प्रयोजनम् ? यस्मिन् तपसि | संयमो नास्ति-षटकायिक जीव हिंसापरिहारः षडिन्द्रिय वशीकरणं च नास्ति तेन कृतेन तपसा कि प्रयोजनम् ? यस्य गृहस्थस्य भवने लक्ष्मीः नास्ति तस्य तेन भवनेन कि प्रयोजनम् ? पुनः दानपूजादिकं विना विभवेन लक्ष्म्या किं क्रियते ? न किञ्चित् । टीकार्थ : हे शिष्य ! जिस धर्म में दया नहीं है उस धर्म से क्या प्रयोजन है ? जिस तप में संयम नहीं हैं. षट्कायिक जीवों की हिंसा का परिहार और षडिन्द्रेिय वशीकरण नहीं है, उस तप से क्या प्रयोजन है ? जिस गृहस्थ के भवन में लक्ष्मी अर्थात धन नहीं है उस भवज से क्या प्रयोजन है ? दान, पूजा आदि कार्यो के बिना लक्ष्मी का क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं।
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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