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उसका समस्त शरीर कांपने लगा और आँखों से आँसू गिरने लगे।
मुमिराज ने कहा कि हे बुद्धिमान ! अब तू आज से लेकर संसाररूपी | अटवी में गिराने वाले मिध्यामार्ग से विरत होकर और आत्मा का हित करने वाले मार्ग में रमण कर उसी में लीन रह।।
जब सिंह की आँखों से पश्चाताप के कारण अश्रुपात होने लगा तो मुनिराज ने कहा :
अधप्रभृति संसार घोरारण्य प्रपातनात् । धीमन्विरम दुर्मार्गादारमापहिले मने ! क्षेमञ्चेयेदाप्तुमिच्छास्ति कामं लोकाग्रधामनि। आप्तागमपदार्थेषु श्रद्धां धत्स्वेति तद्वचः॥
(उत्तरपुराणथ-७४/२०५-२०६) अर्थ :- हे धीमान् ! आज से अब तू संसाराटवी में गिराने वाले दुर्मार्ग से विरत हो और आत्मा का हित करने वाले मार्ग में रमण कर ।
हे भव्य ! यदि तेरी आत्मकल्याण की इच्छा है और तू लोकान पर स्थिर रहना चाहता है तो आप्त, आगम और पदार्थों की श्रद्धा कर।
इस उदबोधन के कारण ही उस शेर तो सम्यक्त्व तथा अणुव्रत ग्रहण कर महावीर बनने का मार्ग प्रशस्त किया।
पातनाथपुराण में भगवान पार्श्वनाथ के पूर्व भवों का वर्णन करते समय भूधरदास जी ने लिखा है कि :
इसी समय वन में रहने वाला वजघोष नाम का हाथी याराज के समान गुस्सा करके चिंघाइता हुआ आया ।
सारे संघ में खलबली मच गई. लोग इधर-उधर भागजे लगे, जिससे बड़ा शोर होने लगा । जो भी प्राणः हाथी के सामने आया, वहीं मृत्यु को प्राप्त हुआ । उस हाथी ने रास्ते में खड़े प्यारे घोड़ों और थके हुए बैलों को मार डाला तथा भूखे भयभीत होकर भागने वाले सभी प्राणी मृत्यु को प्राप्त हुए । इस प्रकार से वह हाथी सर्वनाश करता हुआ तथा चिंघाइला हुआ मुनि के सामने जा पहुँचा । वह बड़ा ही भयंकर था और क्रोधरूपी विष से भरा हुआ था । वहाँ